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________________ काँटों से बचकर चलो ३०७ बड़े होशियार हैं। जैनियों को पैसा कमाना खूब आता है पर उसका सही उपयोग करना नहीं आता। अरे, धन कमा लिया है तो क्ण उसका उपयोग आपके केवल अपने और अपने परिवार के सुख-भोग में ही करना चाहिए ? नहीं, उसे परोपकार में भी लगाना चाहिए। हमारे समाज में परोपकारी और दानी नहीं हैं. ऐसा मैं नहीं कहता पर यह अवश्य कहता हूँ कि रुपये में एक आना ऐसे महापुरुष मिलेंगे और पन्द्रह आना केवल अपनी भोग-सामग्रियाँ जुटाने वाले होंगे । इसलिए अन्य लोगों की आँखों में यह समाज खटकता रहता है। वे कहते हैं - "हम तो भूखें मरते हैं और वे जैनी या बनिये गुल छरें उड़ाते हैं ।" लोग तो हमें भी आप लोगों के लिए उलाहना देने से नहीं चूकते । जब हम महाराष्ट्र में विचरण कर रहे थे। वहाँ प्रवचन मराठे भी काफी तादाद में आया करते थे। एक बार उनमें से एक व्यक्ति बोला-'महाराज आपके ये भक्त यह केवल लोटा डोरी लेकर आये थे पर आज हवेलियां बनाकर ___अब हम उस बात का क्या जबाब देते ? कहना पड़ा-"भाई ! इन लोगों ने हवेलियाँ बनवाई हैं अवश्य, किन्तु किस प्रकार ये रहते हैं इस पर तो विचार करो कि ये व्यापारी एक रुपये के पीछे पाव आना, आधा आना, एक आना या चार आने भी कमाते होंगे और इस प्रकार लखपति बन गये । पर तुम लोग खेतों में गिने-चुने दाने डाल कर हजारों और करोड़ों दाने प्राप्त कर लेते हो फिर भी भूखे क्यों मरते हो ? और इसका कारण क्या है ?" वह व्यक्ति बोला-'महाराज ! आप ही बताइये कि इसका क्या कारण है ?' मैंने कहा- 'तुम्हारी फसल अच्छा पानी बरस जाने से ठीक आ जाती है तो तुम लोग उससे प्राप्त पैसे का संयम नहीं करते । जब तक वह पास में रहता है, खेल तमाशों में, शराब पीने में, मांस खाने में, जुआ खेलने में और ऐसे ही अनेक व्यसनों में उड़ा देते हो। किन्तु ये व्यापारी लोग ऐसा नहीं करते । ये लोग न शराब पीते हैं, न माँस खाते हैं, न जुआ-चोरी ही करते हैं । किसी भी दुर्व्यसन में से अपने पैसे को व्यर्थ नहीं खोते। इसलिए इनका पैसा सुरक्षित रहता है और उससे ये स्थायी सम्पत्ति खरीदकर या बनवाकर आराम से रहते हुए भरसक धर्मध्यान में समय व्यतीत करते हैं। कहने का अभिप्राय यही है कि हमारा समाज यद्यपि इन लोगों के जैसा नहीं है और उसमें अधिक दुर्व्यसन भी नहीं हैं और जातियों के समान, फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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