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________________ ३०६ आनन्द प्रबचन : तृतीय भाग सारा संसार उनका नाम गौरव से लेता है । सन्त भी अधिकार पाकर अपनी मर्यादा का उल्लंघन न करे तो उनका पद पाना सार्थक है । अन्यथा पद तो प्राप्त कर लिया और उलटे रास्ते पर चले गये तो क्या होगा ? आप लोग ही कहेंगे - "क्या रखा है महाराज में ?" कहने का अभिप्राय यही है कि अधिकार पाकर व्यक्ति को उसका सदुपयोग करना चाहिए तथा उसकी मर्यादा रखनी चाहिए । अन्यथा क्या होगा जानते हैं ? यही कि अधिकार में से 'अ' हट जायेगा और केवल धिक्कार ही पल्ले पड़ेगा । अगर हम इतिहास उठाकर देखते हैं तो मालूम हो जाता है कि बादशाह औरंगजेब को अधिकार मिला, किन्तु उसने अपने अधिकार का उपयोग हिन्दुओं को, जिन्हें काफिर कहता था उन्हें निर्मूल करने के प्रयत्न में किया । गुरु गोविन्दास के दो बालकों को भी मुसलमान न बनने के कारण जीते जी दीवाल में चुनवा दिया । हिटलर को अधिकार मिला तो वह तानाशाह बन गया । परिणाम इस सब का क्या हुआ ? यही कि आज भी लोग ऐसे अधिकारियों का नाम धिक्कार के साथ लेते हैं और ऐसे अधिकारियों के उदाहरणों को लेकर ही शुक्राचार्य ने कहा है : अधिकारमदं पीत्वा को न मुह्यात् पुनश्चिरम् । अधिकार रूपी मदिरा का पान करके कौन है जो चिरकाल तक उन्मत्त नहीं बना रहता ? पर बन्धुओ ! ऐसा होना नहीं चाहिए । पूर्वकृत पुण्यों के उदय से मानव पर्याय प्राप्त हुई है और लक्ष्मी का भी संयोग मिल गया है । इसलिए इन दोनों का उपयोग इस प्रकार करना चाहिए जिससे इहलोक और परलोक दोनों ही सुधर सकें। आपके पास पैसा है तो उसे दीन-दुखी और दरिद्र व्यक्तियों के कष्टों को दूर करने में खर्च करो, समाज में अनाथ बालक और निराश्रित विधवा बहनें हैं उनकी सहायता में लगाओ । पैसे वाले होने के नाते आप सब के मान-सम्मान के अधिकारी बने हैं, समाज और संघ के शिरोमणि का पद आपको प्राप्त हुए तो प्रत्येक के साथ नम्रता, सद्भावना और सद्व्यवहार रखो । अन्यथा आपका वैभव और आपका सम्मान थोथा बनकर रह जायेगा । जबान से तो फिर लोग आपकी प्रशंसा कर देगे किन्तु हृदय से तिरस्कार करना नहीं छोड़ेंगे । हमारे जैन समाज में चाहे वे दिगम्बर हैं, श्वेताम्बर हैं, तेरापन्यी या स्थानकवासी हैं अधिकतर व्यवसायी और व्यापारी हैं। सभी धन कमाने में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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