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________________ २८० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग गुफा का आश्रय लिया और उसे निर्जन समझकर उसमें अपने गोले वस्त्रों को सुखा लेने के इरादे से खोलना प्रारम्भ किया। किन्तु दुर्भाग्यवश उसी गुफा में साधु-रथनेमि भी अपने ध्यान में बैठा हुआ था। राजीमती के गुफा में पहुँचने के कारण कुछ आहट हुई और रथनेमि का ध्यान भंग हो गया। इधर कुछ क्षण पश्चात् अँधेरे में कुछ दिखाई देने का प्रारम्भ होने पर राजीमती की दृष्टि भी गुफा में चारों ओर घूम गई तथा उसने रथनेमि को वहाँ देखा। उसे देखते ही वह लज्जित होकर गीले वस्त्र पुनः पहनने ही लगी थी कि रथनेमि जो पुनः एकान्त में राजीमती को पाकर कामवासना का शिकार बन गया था बोला छोड़ जोगने भोग आदर तू. साँभल सोहनवरणी जी। सुख विलसी ने संयम लेस्यां, पीछे करस्याँ करणी जी। क्या कहा रथनेमि ने ? यही कि-'हे सुन्दर नवयौवना ! मेरी बात सुन, मेरा यह कहना कि अभी तो तू यह योग छोड़ दे और मैं भी इसे छोड़े 'देता हूँ। कुछ दिन हम भोग-विलास कर लें और सांसारिक सुखों का रसास्वादन करें। उसके पश्चात् पुनः संयम ले लेंगे और उत्तम क्रियाएँ करेंगे। __इस प्रकार पंचमहाव्रतधारी साधु रथनेमि के हृदय में त्यागे हुए भोगों की लहर पुनः उठी और उसने पुनः-पुनः राजीमती साध्वी से प्रणयनिवेदन किया। किन्तु सती साध्वी राजुल कच्ची मिट्टी की बनी हुई नहीं थी कि रथनेमि की काम-वासना की लहर आते ही गल जाती। उसने रथनेमि को धिक्कारते हुए स्पष्ट कह दिया : गायाँ को धणी गवलियो, तू मत जाणे कोय । संयम रो धणी तू नहीं, हिये विमासी जोय । चंदन बाले बावनो, जो करणी चाहे राख । चौथा सूचूक्या पछे थारे कुलने लागे दाग | कितने तिरस्कारपूर्ण शब्द थे राजमती के ? वह कहती है-"अरे रथनेमि ! जिस प्रकार गायों को चराने वाला ग्वाला गायों का स्वामी नहीं होता उसी प्रकार लगता है कि महाव्रतों को धारण करके तथा संयम को ग्रहण करके भी तू संयमी नहीं है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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