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________________ समय से पहले चेतो २६५ प्रत्येक प्राणी जबसे जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र कम होने लगती है । माता समझती है कि मेरा पुत्र बड़ा हो जाता है। दिन-दिन उसका रंग बदलता है । बाल्यावस्था में वह खेलता-कूदता और भागा-भागा फिरता है । बचपन बीतते ही शक्तिसम्पन्न युवावस्था आती है जिसमें युवक नाना प्रकार के असाधारण कार्य करता है। किन्तु जब वृद्धावस्था आती है तब उसकी देह एकदम जर्जर होकर ठीक उसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार तेल कम होते जाने पर चिराग बुझ जाता है। शरीर तो शरीर, संसार की समस्त वस्तुयें ही नाशवान और अस्थिर हैं । इस विराट-विश्व में जो कुछ भी नेत्रों के सम्मुख दिखाई देता है वह नष्ट होने वाला है। अथाह जल से भरा समुद्र एक दिन रेगिस्तान में परिणत हो जाएगा, ऐसे-ऐसे विशाल बगीचे आज जिनकी सुमधुर और दिल व दिमाग को तरोताजा करने वाली खुशबू समस्त वातावरण को सुगन्धित कर देती है, वे ही उपवन कभी झाड़-झंकाड़ एवं घास-फूस को पैदा करने वाली जमीन बन जायेंगे। आज दिखाई देने वाली अनेक मंजिली इमारतें कल को खण्डहर बन जायेंगी तथा इनमें चमगीदड़ें निवास करेंगी और उल्लू बोलने लगेंगे । लाखों करोड़ों व्यक्तियों से भरे हुए ये नगर कुछ काल में वन बन जायेंगे अथवा पृथ्वी के गर्भ में समा जायेंगे । आप जानते ही हैं कि भूभर्गवेत्ताओं ने मोहन-जोदड़ों जैसे अनेक नगर पृथ्वी में से खोज करके निकाले हैं। मनुष्य के स्थानों पर सिंह, व्याघ्र, हाथी, गेंडे आदि यहाँ पर आ बसेंगे । इस प्रकार जब संसार की कोई भी वस्तु स्थायी रहने वाली नहीं है, तो फिर मानव-देह की क्या बिसात है कि वह स्थायी बनी रह सके। पांच तत्त्वों से बनी हुई यह काया जिसे मानव इत्र-फुलेल से सुधासित करता है, शीत से बचने के लिये गरम वस्त्र पहनता है, ग्रीष्म में हवादार मकानों और पंखों के नीचे उसे रखता है। परों का कष्ट न देने के लिए मोटर-गाड़ियों में घूमता है तथा शरीर को कष्ट न होने देने के लिए मखमली गद्दी पर सोता है, वह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूंद के समान क्षण भर में नष्ट हो जाती है । लाख प्रयत्न करने पर भी बाल्यावस्था के पश्चात् युवावस्था और युवावस्था के पश्चात् वृद्धावस्था आने से नहीं रुकती। मनचले कवि नजीर अकबरा ने भी बुढ़ापे का बड़ा सही चित्र खींचा है । लिखा है वह जोश नहीं, जिसे कोई खोफ से दहले। वह जोश नहीं, जिससे कोई बात सहले ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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