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________________ मानव जीवन की सफलता २४६ वृक्ष पर अनेक शाखाएँ होती हैं और वह कुछ नहीं करतीं तो कम से कम थके हुए अथवा क्लान्त व्यक्ति को शीतल छाया तो प्रदान करती हैं, उनके फूल औरों का अधिक भला नहीं कर सकते तो अपनी मधुर सुगन्ध से यात्रियों के दिमाग को ताजा तो करते हैं । मनुष्य का जीवन भी इसी प्रकार का होना चाहिये । अगर व्यक्ति चाहे तो अपने जीवन की खूशबू को केवल इस जन्म में नहीं, अनन्त काल तक भी बनाये रख सकता है । पर यह सम्भव कैसे हो ? केवल उत्तम कार्य करने से जीवन को धर्ममय एवं करुणामय बनाए रखने से, अन्य आश्रयहीन प्राणियों को शरण देने से तथा संकटग्रस्त व्यक्तियों की रक्षा करने से । ऐसा करने पर ही मनुष्य का जीवन अनन्तकाल तक सुवासित रह सकता है तथा लोग उसके जीवन को अपना आदेश बना सकते हैं । महावीर, बुद्ध, राम और कृष्ण को आज भी लोग क्यों याद करते हैं ? क्यों उनकी पूजा करते हैं ? इसीलिये कि उनका सम्पूर्ण जीवन अन्य प्राणियों का भला करने में व्यतीत हुआ । ऐसे व्यक्तियों का जीवन ही सार्थक माना जा सकता है जो स्वयं तो आत्म-स्वरूप की सच्ची पहचान करके आत्मा को बन्धन - मुक्त कर लें और संसार में अपने जीवन का सर्वोच्च आदर्श स्थापित कर जाएँ । मेरे आज के कथन का सार यही है कि हमें अपने इस दुर्लभ मानवजीवन को सार्थक बनाया है और यह सार्थक तभी बन सकता है जबकि हम सांसारिक प्रलोभनों को जीत लें तथा अधिक से अधिक त्याग, नियम, तपस्या आदि के द्वारा अपने बँधे हुए कर्मों की निर्जरा करें तथा नवीन कर्मों का बंधन होने । इसके लिये हमें प्रतिक्षण यह ध्यान रहना चाहिये कि - भोगा मेघवितानमध्य- विलसत्सौदामिनीचंचला । आयुर्वायुविघट्टिता भ्रपटली लीनाम्बुवद् भंगुरम् । लोला यौवन लालसा तनुभृतामित्याकलय्यद्रुतं । योगे धैर्य-समाधि सिद्धिसुलभे बुद्धि बिदध्वं बुधाः ॥ अर्थात् - इस संसार के भोगविलास सघन बादलों में चमकने वाली विद्युत की तरह चंचल हैं । मनुष्य की उम्र पवन से छिन्न-भिन्न हुए बादलों के सदृशं क्षणस्थायी है, युवावस्था की उमंगें भी स्थिर नहीं हैं । इसलिये ज्ञानी तथा बुद्धिमान व्यक्तियों को परम धैर्य एवं लगन से अपने चित्त को एकाग्र करके उसे आत्म-साधना में लगाना चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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