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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
जीवन को जिस प्रकार बिताता है तथा जब तक अपना अस्तित्व रखता है, औरों का भला ही करता है। उसके फल लोगों को स्वादिष्ट लगते हुए तृप्ति प्रदान करते हैं, फूल मधुर महक देते हैं तथा पत्ते भी नसीहत देने में पीछे नहीं रहते। मुझे इस विषय पर एक सुन्दर दोहा याद आया है । वह इस प्रकार है
आम फले पत्त पाय के, महुआ फले पत्त खोय ।
जो ताहू का रस पिवे, पत्त कहाँ से होय ? दोहा बड़ा मार्मिक है । कवि कहता है-आम के वृक्ष में प्रथम पत्ते आते हैं, फिर मंजरी और उसके पश्चात् फल । इस प्रकार उसके सुन्दर और अन्य प्राणियों को लाभ कर जीवन का प्रारम्भ पत्तों से होता है । पत्त से यहाँ 'पत' अर्थात् इज्जत शब्द लिया है। तो आम के वृक्ष की इज्जत प्रारम्भ से ही उसके पत्ते बड़ाते हैं अगर वे न होते तो आम के वृक्ष की 'पत' रहना कठिन हो जाता। . ऐसा क्यों ? इसके उत्तर में महुए के वृक्ष का उदाहरण दिया गया है । कहा है - महुए का भी एक वृक्ष होता है । उसमें छोटे-छोटे सफेद फल लगते हैं। किन्तु जब वे फल लगते हैं तो उस वृक्ष के समस्त पत्ते झड़ जाते हैं। पत्तों का झड़ना महुए के वृक्ष की 'पत' खोना प्रारम्भ कर देता है । क्योंकि पत्ते तो झड़ जाते हैं और फिर महुए को शराब बनती है जिसे पीकर मनुष्य शराबी कहलाता है तथा उस शराब के नशे में अनेकानेक असभ्यतापूर्ण कुकृत्य करते अपनी इज्जत या 'पत' खो देता है । स्पष्ट है कि जिस फल ने आने से पहले ही अपने पत्ते या 'पत' गँवा दी उसका रस पीकर व्यक्ति अपनी 'पत' कैसे रख सकता है ? नशे में वह गालियाँ देता है, लोगों से झगड़ता है तथा पराई बहू बेटियों पर कुदृष्टि डालता है । यह सब 'पत' चले जाने के कारण ही होता है । इसीलिये महापुरुष कहते हैं-अपनी 'पत' रखो । पर वह कैसे रहे ? तभी रह सकती है जबकि आप औरों की 'पत' रखो । आज संसार में अनेकानेक निर्धन और अपंग व्यक्ति हैं। आपको चाहिये कि तन, मन या धन से जसे भी बने उनका रक्षण करो, उनकी सेवा करो और वह भी न बने तो उनके प्रति सहानुभूति की भावना तो रखो ! आपके द्वार पर एक भिखमंगा खड़ा है तो आपका फर्ज है कि स्वयं सुस्वादु भोजन करते हों पर उसे एक ठण्डी या बासी रोटी दो ! और वह भी नहीं देना चाहते तो कम से कम उसका तिरस्कार तो मत करो, उसे गालियाँ तो मत दो।
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