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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
संसार, तिर्यंच संसार, मनुष्य संसार और देव संसार, इन चारों प्रकार के संसारों से मुक्त हो सकेगा तथा इनमें फँसा नहीं रहेगा ! किन्तु आवश्यकता सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति की तथा जिन वचनों पर सम्पूर्णतः आस्था रखने की है ।
जिनवाणी का महत्त्व बताते हुए पूज्य श्री अमीऋषि ने कहा है-
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केवलवंत महंत जिनेश प्रकाश करी सबको सुखदानी | या सुन होय मिथ्या तम दूर लहे निज आतम रूप पिछानी ॥
जामप्रसाद अनंत तिरे ति हैं तिरतेजू अमी भव प्राणी । या सम अमृत और नहीं धन है, धन है, धन है जिनवाणी ||
कहते हैं -- भगवान् जिनेश्वर ने जिस वाणी का उच्चारण किया है तथा महापुरुषों ने जिसे सर्व साधारण के अज्ञानांधकार का नाश करने के लिए उसे प्रकाशदीप बनाकर प्रस्तुत किया है. उसके द्वारा मिथ्यात्व दूर हो जाता है तथा आत्मा अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेता है। जिस अमूल्य वाणी के प्रभाव से अनन्त आत्माएँ भव-सागर पार कर चुकी हैं, कर रही हैं तथा भविष्य में भी करती रहेंगी उस अमूल्य जिनवाणी को बार-बार धन्य है ।
प्रश्न उठता है -- जिन वचनों के ज्ञान में ऐसी चमत्कारिक शक्ति कैसे है, जिसके कारण चारों प्रकार के संसार नष्ट हो जाते हैं ?
शास्त्र में इस बात का उत्तर दिया गया है -
"जहा सूइ ससुत्ता न विणस्सई । तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सई । नाण-विजय-तब चरिते जोगे संपाउणइ स-समय पर समय विसारए य असंघाणिज्जे भवई ।"
जो सुई डोरे सहित होती है वह खो जाने पर भी डोरे की सहायता से अर्थात् डोरा हाथ में रहने के कारण मिल जाती है । किन्तु उसमें अगर धागा नडला हुआ हो तो फिर उसे खोजना कठिन और कभी-कभी तो असंभव हो हो जाता है ।
इसी प्रकार जीव के लिए बताया गया है कि वह एक सुई के समान है और उसमें ज्ञान धागे का काम करता है । ज्ञान रूपी धागे सहित जो जीव होगा वह अधिक भटकेगा नहीं और कदाचित् भटक भी जाएगा तो शीघ्र अपने स्थान पर आ जाएगा । उत्कृष्ट ज्ञानियों के लिए तो कहना ही क्या है ? वे एक ही जीवन में या अत्यल्प काल में भी परिणामों की चढ़ती से
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