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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
करना चाहता है । किन्तु केवल चाहने मात्र से तो कोई भी मुक्ति प्राप्त कर नहीं सकता। उसे आत्मा को संसार मुक्त करने के लिये अनेक पापड़ बेलने पड़ते हैं।
श्रद्धा जीवन के निर्माण का मूल मन्त्र है। इसके अभाव में विश्व का कोई भी प्राणी कर्मों से मुक्त हुआ हो ऐसा कहीं भी इतिहास नहीं कहता। व्यक्ति कितनी भी पोथियाँ क्यों न पढ़ जाय तथा कितनी भी कलाएँ क्यों न सीख जाय, अगर उस में श्रद्धा नहीं है तो वह सब विद्वत्ता और कलाओं की परिपूर्णता उसके जीवन को अपूर्ण ही रखती है । अर्थात्-वह उसे इस भवसमुद्र से पार नहीं करा सकती।
श्रद्धा के द्वारा मन की अनेक उलझनें सुलझ जाती हैं तथा बुद्धि विकसित होकर ज्ञान को ग्रहण करती है। क्योंकि मन में श्रद्धा होने पर ही उसमें विनय गुण पनपता है, जिसके द्वारा सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होती है । श्रद्धा और विनय का घनिष्ट सम्बन्ध है । भद्धा के रूप
रद्धा के दो रूप होते हैं—पहली सम्यक् श्रद्धा और दूसरी अन्धश्रद्धा । इन दोनों में जमीन और आसमान का अन्तर होता है अर्थात् दोनों ही परस्पर विरोधी होती हैं।
सम्यक् श्रद्धा में विनय गुण का समावेश होता है जो गुरु प्रदत्त ज्ञान को प्राप्त कराता है और अन्ध श्रद्धा में केवल जिद और अहंकार की भावना रहती है जो ज्ञान प्राप्ति में बाधक बनती है तथा कर्मों के भार को बढ़ाती है इसीलिये आश्यक है कि मुमुक्षु सम्यक् श्रद्धा को अपनाए तथा सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति करके अपने आचरण को सुदृढ़ बनाए । भगवद् गीता में कहा भी है
"श्रद्धावान् लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः ।" श्रद्धालु पुरुष ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है और ज्ञान प्राप्त होने पर ही इन्द्रियों की संयम-साधना हो सकती है।
साधक अगर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो उसकी वीतराग के वचनों पर तथा उन वचनों को समझाने वाले गुरु पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास होना च हिए तभी गुरु सम्यक् रूप से शिष्य को ज्ञान-दान दे सकता है।
शारत्रकारों के कथनानुसार ज्ञान भी तीन प्रकार का माना जाता हैजघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट । आराधना के थोकड़े में इस प्रकार के भेद बताये गये हैं।
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