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मुक्ति का मूल : श्रच्दा
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कुछ दिनों से हम 'श्री उन्राध्ययन सूत्र' के अट्ठाइसवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा के आधार पर क्रिया रुचि के विषय में स्पष्टीकरण कर रहे थे और उसके सन्दर्भ में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, सत्य तथा पांच समितियों का वर्णन आप भली-भांति समझ चुके हैं ।
आज हम इसी सूत्र के अट्ठाईसवें अध्याय की तीसवीं गाथा के अनुसार यह समझेंगे कि जीवन में श्रद्धा का महत्त्व कितना है और यह किस प्रकार मुक्ति का मूल माना जा सकता है। गाथा इस प्रकार है
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरण गुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निघाणं॥
अर्थात्-जो व्यक्ति दर्शन यानी श्रद्धा रहित है, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती और ज्ञान के अभाव से उसके जीवन में चरित्र गुण नहीं आ सकता तथा चारित्र गुण के न होने पर मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है। मोक्ष के अभाव में आत्मा अक्षय सुख प्राप्त नहीं कर सकती।
इस गाथा के अनुसार स्पष्ट है कि मोक्ष-प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम श्रद्धा आवश्यक है और दूसरे शब्दों में श्रद्धा ही मोक्ष का मूल है । श्रद्धा का महत्त्व अवर्णनीय है । हम लोग प्रार्थना में भी कहा करते हैं
"श्रद्धा है सो सारयार, श्रद्धा हो से खेवोपार"
यानी श्रद्धा ही जीवन में एक सार वस्तु है जो संसार-सागर से पार उतार सकती है । इस विराट विश्व में प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक अथवा भौतिक, किसी न किसी दुःख से पीड़ित है और वह इनसे मुक्ति प्राप्त
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