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________________ आत्म-साधना का मार्ग २१३ खाने पर मुझे अपनी बुद्धि और विचारों के दूषित होने का भय था अतएव मैंने नहीं खाया । अपवित्र और दूषित अन्न से पापवृत्तियाँ पनपती हैं। ___ जमींदार यह सुनकर बड़ा लज्जित हुआ और उसने अपनी भूलों के लिये गुरु नानक से क्षमा मांगी। बन्धुओ ! इस उदाहरण से यही सारांश निकलता है कि मनुष्य को सदा शुद्ध तथा नेकनीयती से उपाजित अन्न ही खाना चाहिये । यद्यपि मुनियों को इतनी छानबीन का मौका नहीं मिल पाता फिर भी उन्हें जहाँ तक हो सके शुद्ध आहार ही लेना चाहिए तथा पूर्ण निगसक्त भाव से उसे ग्रहण करना चाहिये । यही एषणा समिति का लक्षण है। अब हमारे सामने चौथी समिति आती है (४) आदानभाण्ड निक्षेपण समिति- इससे तात्पर्य है-"मुनि को अपने पात्र, वस्त्र, पुस्तकें आदि समस्त वस्तुएँ बड़ी सावधानी और यत्न से रखनी तथा उठानी चाहिये । कहा भी है आसनादीनि संवीक्ष्म, प्रतिलिख्य च यत्नतः । गृह्णीयानिक्षिपेद्वा यत्, सादानसमिति स्मृताः ॥ -योगशास्त्र आसन, रजोहरण, पात्र, पुस्तक आदि संयम के उपकरणों को सम्यक् प्रकार से देख-भाल करके यातना पूर्वक ग्रहण करना और रखना आदान समिति कहलाती है। इस समिति का विधान इसीलिए किया गया है कि संयम के लिए आवश्यक उपकरणों को अगर सावधानी से उठाया और रखा जाएगा तो उससे अत्यन्त सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा नहीं होगी। जो मुनि सम्यक् प्रकार से इस समिति का पालन करता है वह अनेक प्रकार की हिंसा से अपना बचाव कर सकता है अतः प्रत्येक वस्तु को विवेक पूर्वक ही उठाना और विवेक पूर्वक ही रखना चाहिये। संयम मार्ग में उपयोग में आने वाली वस्तुएँ भी दो प्रकार की होती हैं (१) ओघोपधि (२) औपाहिकोपधि । ओघोपधि उन वस्तुओं को कहते हैं जो मुनि को सर्वदा अपने पास रखनी पड़ती हैं । यथा-रजोहरण । इसे छोड़कर कहीं भी जाना साधु के लिये निषिद्ध है । हमारे आचार्यों ने तो इसके लिए यह मर्यादा रखी है कि पांच हाथ दूर कहीं भी रजोहरण को छोड़कर मत जाओ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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