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________________ २१२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग कहने का अभिप्राय यही है कि साधु अपनी ओर से लगने वाले सोलह दोष तथा गृहस्थ की ओर से लगने वाले भी सोलहों दोषों का बचाव करके निर्दोष आहार लाए तथा उसकी बिना सराहना अथवा निन्दा किए अस्वादवृत्ति से केवल शरीर चलाने का साधन मात्र समझ कर ही ग्रहण करें। इसका परिणाम यही होगा कि शुद्ध आहार के कारण उसकी बुद्धि निर्मल बनेगी तथा बुद्धि निर्मल रहने से आचरण भी उत्तम रह सकेगा। पवित्र अन्न खाने से मन की वृत्तियाँ निर्मल रहती हैं। पवित्र अन्न कौनसा ? एक बार गुरु नानक घूमते-घूमते किसी गाँव में जा पहुंचे। उनके वहाँ पहुंचते ही गाँव भर के व्यक्ति प्रसन्नता से भर गए तथा अनेक व्यक्ति अपने-अपने घर से उनके लिये नाना प्रकार के उत्तमोत्तम खाद्य पदार्थ बनवाकर लाये। उन लोगों में गांव का जमींदार भी था जो अत्यन्त स्वादिष्ट और मधुर पकवान बनवाकर लाया था। किन्तु गुरु नानक ने जमींदार की एक भी वस्तु को ग्रहण नहीं किया तथा एक गरीब लुहार को लाई हुई बिना चुपड़ी मोटीमोटी रोटियां नमक के साथ खाई। जमींदार को अपने लाये हुये भोजन का तिरस्कार देखकर बड़ा क्षोभ हुआ और उसने नानक जी से पूछा "महात्माजी ! क्या कारण है कि आपने मेरे लाए हुए पकवानों को तो छुआ भी नहीं और इस लुहार की सूखी रोटियों को खाया ?" गुरु नानक ने मुह से कोई उत्तर नहीं दिया पर लुहार की रोटी में से बचा हुआ एक टुकड़ा उठाया और उसे दोनों हाथों में दबाया। रोटी दबाते ही सब ने आश्चर्य से देखा कि रोटी में से दूध की बूदें टपक रही हैं। उसके पश्चात् नानक जी ने जमींदार के लाये हुए पकवानों में से एक मिठाई का टुकड़ा उठाया और उसे भी अपने हाथों से दबाया। देखने वाले व्यक्ति और भी चमत्कृत हुए, जब उन्होंने देखा कि मिठाई में से खून की बूंदें झर रही हैं। अब गुरु नानक जी ने जमींदार को सम्बोधन करते हुये कहा-"देखो भाई ! इस लुहार ने अपना पैसा बड़ी मेहनत से तथा बड़े पवित्र विचारों के साथ कमाया है अतः इसका अन्न पवित्रतम है । इसे खाने से मेरी बुद्धि निर्मल रहेगी। किन्तु तुम्हारा पैसा दूसरों को सताकर तथा उनका पेट काटकर अनीति से कमाया गया है अत: इससे तैयार किया हुआ अन्न दूषित है। इसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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