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________________ सत्य का अपूर्व बल १६५ यशो यस्माद् भस्मीभवति वनवह्नरिव वनं, निदान दु खानां यदवनिरुहाणां अलमिव । न यत्र स्याच्छायातप इवः तपः सयम-कथा, कथं चित्तन्मिथ्यावचनमभिधत्ते न मतिमान् ॥ कवि का कथन है--जिस प्रकार वन में दावानल लग जाने पर सम्पूर्ण जंगल जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार असत्य भाषण भी इस संसार रूपी वन दावानल के समान है जिसके प्रज्वलित हो जाने से मानव का यश और कीर्ति सभी भस्म हो जाते हैं । दूसरा कारण झठ के लिये यह दिया गया है कि जैसे वृक्ष के लिये जल मूल के समान होता है अर्थात् जल ही वृक्ष को पल्लवित पुष्पित करता है तथा उसे पुष्ट बनाता है उसी प्रकार झूठ दुःख रूपी वृक्ष को पुष्ट करता है। यानी झूठ बोलने से, दुखों की प्राप्ति होती है। बीसरी बात श्लोक में बताई गई है--छाया में धूप नहीं रहती और धूप में छाया नहीं रहती, अर्थात् धूप और छाया एक साथ कभी नहीं रह सकते उसी प्रकार असत्य जहाँ रहता है वहाँ जप, तप संयम नहीं रहता तथा जहाँ ये सब रहते हैं वहाँ असत्य नहीं टिकता। ___ इसलिये जो बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं वे कभी सत्य को धारण करके अपने जप, तप तथा संयम की साधना को नष्ट नहीं करते। सन्त तुकाराम जी भी संक्षेप में सत्य और असत्य की पहचान इस प्रकार कराते हैं-- सत्य तोचिं धर्म असत्य ते कर्म, आणीक हे वर्म नार्ही दुजे ॥ सत्य भाषण करना परम धर्म है और असत्य बोल ना कर्म बन्धन का कारण है। आप भी एक दोहा प्राय: बोलते हैं-- साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदे साँच है ताके हिरवे आप ॥ अर्थात्--सत्य के समान अन्य कोई धर्म या तप नहीं है तथा झूठ बोलने जैसा अन्य कोई भी पाप नहीं है। जो व्यक्ति सत्य बोलता है उसके हृदय में परमात्मा स्वयं निवास करते हैं। वास्तव में जो सत्य बोलता है, उसकी ईश्वर भी स्वयं सहायता करता है एक उदाहरण से आप इसे भली-भाँति समझ पायेंगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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