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________________ १८४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग और उसे अपनी विद्या सिखाने के लिए कहा । भंगी ने अपनी विद्या सिखाना प्रारम्भ किया किन्तु राजा श्रेणिक के पल्ले उसका एक अक्षर भी नहीं पड़ा । इससे श्रेणिक नाराज हो गये और बोले - " लगता है कि तू मुझे धोखा दे रहा है या कपट करता है । अन्यथा तेरी विद्या मुझे समझ में क्यों नहीं आती ?" मन्त्री अभयकुमार उस वक्त दरबार में उपस्थित थे और अब उचित अवसर देखकर बोले - "हुजूर विद्या विनय के अभाव में नहीं सीखी जा सकती । आप सिंहासन पर विराजमान हैं और यह भंगी आपके समक्ष खड़ा है । फिर विद्या आप किस प्रकार ग्रहण कर सकते हैं ? गुरु के समक्ष तो आपको पूर्ण नम्रता और विनीतता के साथ ही रहना पड़ेगा ।" बात राजा की समझ में आ गई और वे तुरन्त सिंहासन से उतर गये । तत्पश्चात् उन्होंने उस भंगी से गुरु के समान ही हार्दिक श्रद्धा अर्पित करते हुए यथा विधि विद्या देने की प्रार्थना की। राजा के विनय का चमत्कारिक फल हुआ और अल्प समय में ही उन्होंने विद्या में सिद्धि हासिल कर ली । विद्य दान के पश्चात् भंगी को मृत्यु दण्ड देने के लिये ले जाया जाने लगा किन्तु मन्त्री अभयकुमार जो कि प्रारम्भ से ही भंगों को काल का ग्रास बनने देना नहीं चाहते थे, राजा से बोले "गरीब परवर ! अपराध क्षमा करें, अब यह भंगी जो कि आपको विद्या दान देने के कारण आपके लिये गुरु के समान पूज्य बन गया है आपके द्वारा मृत्युदण्ड दिया जाने लायक नहीं है । क्या कोई शिष्य अपने गुरु को मृत्युदण्ड दे सकता है ?" अपने पुत्र और महामन्त्री अभयकुमार की आँखें खुल गईं और उन्होंने उसी क्षण भंगी को विदा किया । बात सुनकर राजा श्रेणिक की सजा से बरी करके ससम्मान कहने का अभिप्राय यही है कि किसी भी कार्य को सम्पन्न करने, अथवा किसी भी कला को सीखने के लिये विनय गुण की प्रथम और अनिवार्य आवश्यकता है । इसके अभाव में मनुष्य कभी भी अपने शुभ लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । अत: इसे लोकोपचार विनय का तीसरा भेद कहा गया है । अब हमारे सामने चौथा भेद आता है— 'कज्जपडिकइया' । इसका अर्थ है – उपकार करने वाले का बदले में उपकार करना । हमारा धर्म तो कहता है - अपना अपकार कोई करे तो उसका भी मनुष्य उपकार ही करे, अपकार नहीं । फिर उपकार करने वाले का तो उपकार करना ही चाहिये । महाकवि कालिदास ने तो कहा है - Jain Education International न क्षुद्रोऽपि प्रथम- सुकृतापेक्षया सश्रयाय । प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किम्पुनर्यस्तयोच्चैः ॥ For Personal & Private Use Only - मेघदूत www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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