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________________ १८२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग फल यह हुआ कि चन्द्रयश मुनि को ठोकरें नहीं लगीं और आचार्य को तकलीफ होना बन्द हो गई । पर उन्हें इससे बड़ा आश्चर्य हुआ और इसीलिए शिष्य से पूछा -- --' क्या बात है ? मार्ग वही है और घोर अँधेरा भी । फिर तू इतनी सावधानी से कैसे चलने लग गया है ?" मुनि ने अत्यन्त विनयपूर्वक ही उत्तर दिया- "गुरुदेव ! यह सब आप ही की कृपा का फल है क्योंकि मैं अब सब कुछ और यह मार्ग भी पूर्ण रूप से देख रहा हूँ । इसीलिए चलने में तकलीफ नहीं होती और आपको भी कष्ट नहीं हो रहा है ।" ज्यों ही गुरुजी ने यह बात सुनी, वे समझ गये कि मेरे शिष्य को केवलज्ञान हो गया है । इस बात को जानते हो अब उनके हृदय में पश्चात्ताप का तूफान उठा । वे विचार करने लगे - ' हाय ! मैं कितना दुष्ट हूँ जो अब तक अपने इस विनीत और केवल ज्ञान के अधिकारी शिष्य को हाथ-पैरों से चोटें पहुँचाता रहा । धिक्कार है मुझे जो मैंने ऐसे केवल ज्ञानी को असातना पहुँचाई ।” पश्चात्ताप की भावना गुरु रूद्रदत्त आचार्य के हृदय में इतनी उग्र हुई और परिणामों में इतनी उच्चता तथा तीव्रता आई कि उसी क्षण उन्हें भी केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई । कहने का अभिप्राय यही है कि जो साधक विनय को अन्तरतम में प्रति ष्ठित कर लेता है उसके लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता । विनय गुण के द्वारा ही चन्द्रयश मुनि ने स्वयं केवलज्ञान प्राप्त किया और अपने गुरु को भी प्राप्त करवाया । इसीलिए शास्त्र में कहा गया है कि गुरुजनों के स्वभाव के अनुकूल रहना चाहिये । गुरु क्रोधी हो सकते हैं, पिता क्रोधी हो सकते हैं तथा सास व ससुर भी क्रोध हो सकते हैं किन्तु महानता उसी व्यक्ति की है जो अपने मधुर व्यवहार और विनय से उन्हें सन्तुष्ट करे और अपने आपको उनके अनुकूल बनाने का प्रयत्न करे । 'कज्जहेउ' यह लोकोपचार विनय का तीसरा भेद है । इसका अर्थ हैकार्य सम्पन्न करने हेतु विनय करना । मान लीजिये, किसी को ज्ञान प्राप्त करना है तो वह जिस विसी के पास भी मिले विनयपूर्वक ग्रहण करे । कभी भी यह न सोचे कि ज्ञानदाता मुझसे निम्न कुल का है, निम्न जाति का है या कि अन्य धर्म या सम्प्रदाय का है । दो अक्षर सिखाने वाला भी ग्रहण करने वाले के लिये गुरु और पूज्य होता है । एक उदाहरण से आप यह बात समझ सकेंगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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