SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग इसीलिए पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज मनुष्य को चरित्रवान बनने के लिये प्रेरणा देते हुए कहते हैं : मानुष जनम शुभ पाये के भुलाय मत, औसर गयाम चित्त, फेर पछितावेगो । साधु जन संगत अनेक भाँत कर तप, छोरिके कुपंथ एक ज्ञान पंथ आवेगी ॥ जीव दया सत्य गिरा अदत्त न लोजे कभी, धारिके शियल मोह ममत मिटावेगो। ठावेगो सुक्रिया एते मन में विराग धार, कहे अमीरिख तबे मोक्षपद पावेगो । कवि ने कहा है-हे जीव ! ऐसा महान और शुभ मानव भव पाकर तू भूल मत कर, अगर यह अवसर तूने खो दिया तो फिर जन्म-जन्मान्तर तक पश्चात्ताप करना पड़ेगा । इसलिए साधु-जनों की तथा गुरुओं की संगति कर, उनके समीप रहकर ज्ञान दर्शन, चारित्र एवं तप की आराधना करने का प्रयत्न कर तथा अज्ञान एवं मिथ्यात्व के कुपंथ पर न चलकर ज्ञान के शुभ मार्ग पर आ ! हे साधक ! तेरा चारित्र तभी निर्मल बनेगा जब कि तू अहिंसा का पालन करेगा, अपनी जिह्वा से सत्य का ही उच्चारण करेगा, कभी बिना दी हुई वस्तु को नहीं लेगा, शीलवान् बनेगा तथा समस्त सांसारिक वस्तुओं पर से आसक्ति हटाकर निरासक्त भाव से अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ आत्मा की उन्नति के लिये भी प्रयत्न करता रहेगा। ऐसा करने पर ही तू अपने सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकेगा। वस्तुत: जो साधक अपने गुरु के समीप रहकर ज्ञानार्जन के साथ-साथ आत्मा को उन्नत बनाने वाले अन्य सद्गुणों को ग्रहण करने का प्रयत्न करेगा तथा अपने गुरु की दिनचर्या, उनके त्याग-प्रत्याख्यान तथा उनकी तपः साधना पर प्रगाढ़ विश्वास और श्रद्धा रखता हुआ उन्हें अपनाने का प्रयत्न करेगा वही अपनी आत्मा को सफल बनाता हुआ आत्म-कल्याण कर सकेगा। ___ लोकोपचार विनय का दूसरा भेद है :-परच्छंदाणवत्तियं । इसका अर्थ है बड़ों के स्वभाव के अनुकूल रहना अथवा बड़ों के चरण-चिह्नों पर चलना । यह भी विनय का एक महत्वपूर्ण अंग है । जो विनीत साधक या शिष्य अपने गुरु के द्वारा तिरस्कृत होकर भी उनके प्रति आस्था और पूर्ण भक्ति रखता है उसके लिये संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy