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________________ १६४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग अर्थात्--परमात्मा तो मेरे अन्दर ही स्थित है किन्तु मेरा भ्रम उसकी खोज में मुझे न जाने कहाँ कहाँ ले जाता है । तो बंधुओ, अन्त में मुझे यही कहना है कि अगर हमें मुक्ति की अभिलाषा है तो हमें अपने ज्ञान के द्वारा चारित्रिक दृढ़ता अपनानी है । और चरित्र में दृढ़ता लाने के लिए व्रत नियम, त्याग - प्रत्याख्यान आदि के द्वारा मन तथा इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखना है । ऐसा करने पर ही हम अपने आचरण को शुद्ध एवं निर्मल बना सकेंगे तथा अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे । यद्यपि सम्यक्दर्शन और सम्यक्ज्ञान भी मुक्ति के साधन हैं किन्तु मुख्य साधन चारित्र है । दर्शन एवं ज्ञान में परिपूर्णता आ जाने पर भी जब तक चारित्र में पूर्णता नहीं आती, आत्मा को मुक्ति नहीं मिल सकती । और चरित्र में पूर्णता आते ही वह तत्काल जन्म मरण से सर्वदा के लिए मुक्त हो जाती है । उसके अनादिकालीन कष्टों का और व्यथाओं का अन्त हो जाता है । स्पष्ट है कि चारित्र का मूल्य आध्यात्मिक क्षेत्र, तथा व्यावहारिक क्षेत्र दोनों में ही अत्यन्त महत्त्व रखता है । कोई भी व्यक्ति चाहे वह महा विद्वान् हो, दार्शनिक हो, वैज्ञानिक हो अथवा अन्य कोई भी महान् विशेषताएँ अपने आप में रखता हो, जब तक सदाचारी नहीं बन जाता उसे प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती । वही व्यक्ति जीवन में यश का उपार्जन करता है और मर कर भी अमर बनता है जो अपने आचरण में दृढ़ता प्राप्त कर लेता है तथा जिसका आचरण स्वयं ही औरों के लिए आदर्श बनकर उनका मार्ग-दर्शन करता है । यही हाल आध्यात्मिक क्षेत्र में भी है। जब तक साधक दान, शील, तप तथा भाव आदि की आराधना करता है, अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखता है तथा मरणांतक परीषह आने पर भी धर्म - मार्ग को नहीं छोड़ता, वह अपनी आत्मा को निर्मल बनाकर उसे पाँचवीं गति जिसे मोक्ष कहते हैं, उसमें ले जा सकता है । अभिप्राय यही है कि प्राणी जब अपना लक्ष्य मुक्ति को बना लेता है तथा उसकी रुचि विश्वास और श्रद्धा सब उसी दिशा में स्थिर हो जाते हैं. तभी उसका चारित्र दृढ़ बनता है और वह उत्तरोत्तर उन्नत होता हुआ आत्मा को समस्त कर्मों से मुक्त करता है । अतएव हमें अपने चारित्र को निष्कलंक रखते हुए उसे इतना सबल बनाना है कि मुक्ति स्वयं ही आकर हमारी आत्मा का वरण करे । * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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