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आत्म-शुद्धि का मार्ग; चारित्र १६३ सकता। कहा भी है
अर्थो वा मित्रवर्गोवा ऐश्वर्यवा कुलान्धितम् । श्रीश्चापि दुर्लमा भोक्तुं तथैवाकृतकर्मभि ॥
-वेदव्यास (महाभारत) जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्र, ऐश्वर्य, उत्तमकुल तथा दुर्लभ लक्ष्मी, किसी का भी उपयोग नहीं कर सकते ।
पुरुषार्थ के अभाव में मनुष्य अपने चारित्र को भी दृढ़ नहीं बना सकता और उसका ज्ञान निरर्थक जाता है । अगर व्यक्ति शुभ विचार रखता है तो उसके अनुरूप उसे कर्म भी करने चाहिए तभी वह चरित्रवान और साधक कहला सकता है । किसी भी व्यक्ति की सच्ची परख उसके पांडित्य अथवा विद्वत्ता के बल पर नहीं की जा सकती । अपितु उसके कर्मों को देखकर ही उसके अच्छे बुरे की पहचान की जा सकती है ।
__ मनुष्य अपने चरित्र का निर्माता स्वयं ही होता है । क्योंकि समस्त अच्छाइयाँ और बुराइयाँ उसके अन्दर विद्यमान रहती हैं। ज्ञान और पुरुषार्थ के द्वारा वह अपने अन्दर रही हुई अच्छाइयों को उभार सकता है तथा मिथ्य त्व और अज्ञान के द्वारा बुराइयों को जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने आप में से ही तार निकालकर एक जाल-सा अपने चारों ओर बुन लेता है तथा उसमें फँस जाता है, उसी प्रकार चरित्रहीन व्यक्ति अपने अन्दर की बुराइयों को अपने चारों ओर फैला लेता है और उसके परिणामस्वरूप कर्मों के असंख्य बंधनों में स्वयं ही जकड़ जाता है ।
चरित्रहीनता का सबसे बड़ा कारण उसकी दुर्बलता, आत्मविश्व स की कमी और अज्ञान होता है। किन्तु जो नर-पुगव इन कमियों को दूर करके अपने ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित कर लेते हैं वे समस्त बाधाओं को जीतते हुए साधना-पथ पर बढ़ते हैं तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं ।
सच्चरित्र व्यक्ति की इच्छा शक्ति अटूट और चमत्कारिक होती है । दूसरे शब्दों में इसी इच्छा शक्ति को हम भावना कहते हैं जिसके बल पर साधक अल्पकाल में भी स्वर्ग और मोक्ष तक प्राप्त कर लेता है। परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर कहीं भी बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है । वह तो उसकी आत्मा में ही निवास करता है। काव जोक ने कहा भी है--
वह पहलू में बैठे हैं और बदगुमानी। लिए फिरती मुझको कहीं का कहीं है ।
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