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________________ आत्म-शुद्धि का मार्ग ; चारित्र १६१ चिन्तामणि होय जहाँ दारिद्र रहे न रंच, ___ धनन्तर आये मेटे वेदन कराल को। तैसे जिन नाम से करम को न अंश रहे, ऐसे प्रभु अमीरिख जपत त्रिकाल को ।। जो व्यक्ति भगवान् का भजन करते हैं उनके समस्त विघ्न कपूर के समान विलीन हो जाते हैं। पद्य में बताया है-गरुड़ की आवाज सुनकर जिस प्रकार सर्प भयभीत हो जाता है, सूर्य के उदय होते ही घोर अंधकार नष्ट हो जाता है, बरसात आने पर अकाल दूर होता है, चितामणि रत्न के होने पर दरिद्रता नहीं रहती, तथा धन्वंतरि वैद्य आकर बीमार की समस्त पीड़ाओं को मिटा देता है, इसी प्रकार जिनेश्वर का नाम लेने से बंधे हए कर्मों का लेश भी आत्मा के ऊपर नहीं रहता । इसीलिए संत-मह त्मा प्राणियों को प्रेरणा देते हैं कि अपनी जिह्न इन्द्रिय को व्यर्थ की बातों में न लगाकर उससे परमात्मा का नाम लो ताकि आत्मा का कल्याण हो सके । कवि आगे कहता है-''मैं यहाँ पर तुम्हें यही चेतावनी देने आया हूँ कि गफलत की निद्रा का त्याग करो और अज्ञ न के अँधेरे से ज्ञान के प्रकाश में आकर सही मार्ग पर चलो। अपने चारित्र को दढ रखकर अगर साधना के मार्ग पर चलोगे तो इस संसार-सागर को पार कर लोगे ।" आपने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और चित्त मुनि के बारे में सुना ही होगा कि उन दोनों के जीवों ने पाँच जन्म साथ-साथ किए थे और उसके पश्चात् छठे जन्म में वे अलग-अलग हुए। चित्त मुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को आकर बोध देना चाहा अतः कहा - "ब्रह्मदत्त ! हम पिछले पाँच जन्मों में साथ-साथ रहे हैं पर तुमने नियाणा कर लिया था अत: चक्रवर्ती बन गए और मैंने नियाणा नहीं किया अतः धनाढ्य उत्तन कुल में जन्म लेकर अब मुनि हो गया हूँ।" "अब भी मैं चाहता हूँ कि तुम अपना हृदय धर्म-ध्यान में लगाओ, कुछ अंगीकार करो तथा साधना के पथ पर बढ़ो ! तुम से अधिक नहीं बन पाता है तो दान दो तथा व्रतों का अंशतः ही पालन करो।" चित्त मुनि के उपदेश का ब्रह्मदत्त पर कोई असर नहीं हुआ और उसने इन सबके लिए स्पष्ट इन्कार कर दिया । तब मुनि ने कहा- "अच्छा और कुछ भी नहीं हो सकता तो कम से कम अनार्य कर्म तो मत करो! आर्य कर्म करने का ही निश्चय कर लो।" किन्तु चित्त मुनि के समझाने का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि चित्त कही ब्रह्मदत्त नहीं मानी, टोला रे नाहीं लगे टाँची। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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