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________________ स्वाध्याय : परम तप स्वरूप नाना प्रकार के पापों का उपार्जन करता हुआ तथा लोगों की दृष्टि में हृदयह न साबित होता हुआ इस जन्म को खो देगा। कवि श्री अमरचन्द जी महाराज ने कहा भी है :--- छल-छदम अनेक प्रकार रचे, सदसत्य-विवेक विनष्ट भया । सबके दिल में बन शल्य चुभा, न कदापि करी तिलमात्र दया । मदमत्त बना महिषासुर-सा, बस पीकर विषयों की विजया । अपना-पर का हित साध सका कुछ भी नहिं, व्यर्थ नृजन्म गया। तो बन्धुओ, यह दुर्लभ मानव-जन्म पाकर उसे हमें इस तरह व्यर्थ ही नहीं खो देना है । वरन् उसका जितना भी संभव है लाभ उठाना है। और वह धर्मग्रन्थों को पढ़ने से तथा उनका पुनः-पुनः स्वाध्याय करने से ही संभव हो सकेगा । वही बात जो एक बार पढ़ने अथवा सुनने से समझ में नहीं आती, दुबारा तिबारा पढ़ने से सहज ही हृदयंगम हो जाती है। आप परीक्षा देते समय प्रश्न पत्र को केवल एक बार ही नहीं पढ़ते, बार-बार पढ़ते हैं। क्यों ? इसीलिए कि पूछी हुई बात को भली-भांति समझ सकें। फिर मोक्ष प्रदान करने वाला आध्यात्मिक विषय आप एक बार पढ़ने से ही सहज में कैसे समझ सकेंगे। इसीलिये कहा गया है प्रतिदिन स्वाध्याय करो। जो पढ़ नहीं सकते उन्हें सुनने की आदत डालनी चाहिए। उससे भी ज्ञान लाभ होता है । कहने का अभिप्राय केवल यही है कि जैसे भी बन सके स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये और उसे आचरण में उतारकर आत्मा को ऊचाई की ओर ले जाना चाहिए। तभी उसका कल्याण होना सम्भव होगा। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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