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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
अधिक से अधिक समय ज्ञानाराधन में ही लगाता है । भले ही वह उसका पढ़ा हुआ ही क्यों न हो, वह पुनः पुनः उसका स्वाध्याय करके भी उतना ही प्रसन्न होता है ।
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सब जणिमा प्रवर्त्त
अहमदनगर में एक बड़े अनुभवी, ज्ञानी एवं धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले श्रावक थे । उनका नाम किशनलालजी मुथा था । बहुत पहले मैंने भी उनसे कुछ शास्त्रों का पठन किया था ।
जिन दिनों मैं उनसे शास्त्रीय अध्ययन करता था, वहीं पर एक विदुषी और साध्वी शिरोमणि स्थविरा महासती रामकुवरजी भी विराज रहीं थीं । पन्द्रह सोलह साध्वियों में वह सबसे बड़ीं थीं, स्वयं भी बहुत विदुषी थीं । किन्तु जब भी मैं मुथाजी से शास्त्र पढ़ता वे वयोवृद्धा सतीजी भी उसी शास्त्र की एक प्रति लेकर बैठ जाती तथा पढ़े जाने वाले विषय की पुनरावृत्ति किया करतीं थीं ।
तारीफ की बात तो यह है कि उनसे छोटी एक सती थीं, जब उनसे कहा गया कि तुम भी शास्त्र को लेकर बैठो ताकि कुछ न कुछ लाभ हासिल हो सके तो वे बैठतीं तो क्या, बोलीं- "म्हारे तो सब जाणिया प्रवर्त्ते ।" अर्थात् - 'मुझे तो सबकी जानकारी है ।'
सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनसे बड़ी, ऊँचे दर्जे की तथा विद्वान सती श्री रामकुवरजी महाराज तो सब जानकारी होते हुए भी शास्त्र लेकर बैठ जाती और छोटी सती कहने लगीं - 'म्हारे तो सब जाणिया प्रवर्ते । भले ही उन विषयों की उन्हें जानकारी होगी, किन्तु अगर वही विषय पुनः दुहरा लिया जाता तो क्या नुकसान था ? और ज्ञान पक्का ही तो हो जाता ।
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मंदसौर में एक गौतम जी वाघिया नाम के सुश्रावक थे । घर के सम्पन्न ही क्या लक्षाधीश थे किन्तु उनकी धर्म में अटूट श्रद्धा थी । उन्हें भगवती सूत्र सुनने का बड़ा शौक था । जो भी संत उनके यहाँ पधारते वे उनसे प्रार्थना करते – “भगवन् ! भगवती सूत्र सुनाइये । न जाने जीवन में कितनी बार उन्होंने भगवती सूत्र सुना और समझा होगा। क्या जरूरत थी उन्हें बार-बार उसे सुनने की ? केवल इसीलिए तो सुनते थे कि उनका सीखा हुआ ज्ञान और की हुई जानकारी कहीं कम न हो जाय । वास्तव में ही ज्ञान के सच्चे पिपासु जिनवाणी रूपी अमृत का पान करके कभी भी नहीं अघाते । वे जिनवाणी रूप शारदा से पुन: पुन: प्रार्थना करते हैं :
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तेरी ही कृपा तें मति- तिमिर विनसि जाय,
तेरी ही कृपा तें ज्ञान भानु को उजास होय ।
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