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तपो हि परमं श्रेयः ६७ वास्तव में, जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी न दिखाकर भिन्न-भिन्न रूप में दिखाना यह माया या कपट की श्रेणी में आता है। इसी प्रकार त्याग, भक्ति, तप एवं संयम की क्रियाओं में मनुष्य अपनी आंतरिक भावनाओं को छिपाकर दिखाने के लिये उनसे उलटी क्रियाएं करता है तो वह कपट कहा जाता है । जैसे-मन में आदर और श्रद्धा न होते हुए भी उन्हें प्रदर्शित करने के लिये गुरु को नमस्कार करना अथवा भगवान् के अस्तित्व में सन्देह रखते हुये भी लोगों की दृष्टि में धर्मात्मा कहलाने के लिये पूजा-अर्चना करना। . ऐसी क्रियाओं से साधक को उनका उत्तम फल कदापि नहीं मिलता, उलटे कुफल भुगतना पड़ता है। कपट भगवान् को भी नहीं छोड़ता
भगवान मल्लिनाथ के जीव ने पूर्व भव में अपने छः मित्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की थी । सातों मित्रों ने आपस में तय किया था कि हम समान करणी करेंगे ताकि सभी को समान फल मिले ।
किन्तु दीक्षा लेने के पश्चात् महाबल मुनि के हृदय की भावनायें बदल गई और उनके हृदय में कपट का उदय हुआ । कपट के कारण उन्होंने अपने मित्रों से किये हुए वादे को तोड़ डाला और विचार किया
"मैं सांसारिक अवस्था में बड़ा भारी राजा था और अब साधुपना लेकर भी गुरु हूँ। ये सब मेरे शिष्य और छोटे हैं, तो क्यों न मैं चुपचाप इनसे बढ़कर करनी करूं कि आगे जाकर भी बड़ा ही बना रहूँ।"
इस विचार के साथ ही भगवान् मल्लिनाथ ने महाबल मुनि के भव में उत्कृष्ट तप एवं ज्ञान, ध्यान-संयमादि की उत्तम क्रियाएं कीं। फल यह हुआ कि उत्कृष्ट तपादि क्रियाओं का फल तो उन्हें मिला अर्थात् बड़प्पन तो मिल गया किन्तु करणी में कपट रखने के कारण स्त्री गोत्र का बंध हो गया। ___ कहने का अभिप्राय यही है कि कोई भी शुभ क्रिया करने पर उसका फल तो अवश्य मिलता है किन्तु उसमें किसी प्रकार का कपट रखा जाये तो उसका बुरा परिणाम भी भोगना पड़ता है। की हुई कोई क्रिया निष्फल नहीं जाती इस विषय में एक कवि ने कहा है--
वृक्ष निष्फल और वन्ध्या नारी,
कोई कर्म योग रह जावे रे । दया वान फल-फल जाण कभी, निष्फल नहीं जावे रे !
दान नित करजो रे ! कवि का कथन है--प्रत्येक वृक्ष के लिये प्राकृतिक नियम है कि वह फल प्रदान करे और होता भी ऐसा ही है कि प्रत्येक वृक्ष किसी न किसी प्रकार
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