________________
तपो हि परमं श्रेयः ९५
तप की महत्ता का जितना भी वर्णन किया जाये, थोड़ा है, क्योंकि उसके द्वारा इस विराट विश्व की कोई भी सिद्धि असाध्य नहीं रह जाती । एक श्लोक यही बात कहता है
यद् दूरं यद् दुराराध्यं, यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्व तपसा साध्यं, तपो हि दूरतिक्रमम ।। जो वस्तु अत्यन्त दूर की जान पड़ती है, जिसकी आराधना करना अत्यन्त कठिन है, जो इतनी ऊँचाई पर है कि हमारे बल-बूते की नहीं मालूम होती, वह भी तपश्चरण के बल पर सहज साध्य बन जाती है।
तप के द्वारा ही मनुष्य अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकता है। इसका प्रभाव साध्य-प्राप्ति में आने वाली प्रबल बाधाओं को भी पलक झपकते ही नष्ट कर सकता है तथा देव-दानवादि सभी को अपना आज्ञानुवर्ती दास बना सकता है । मन और इन्द्रियों की समस्त उच्छृखलताओं को दूर करके एकमात्र तप ही आत्मा को निर्मल और विशुद्ध बना सकता है तथा उसे कर्म-बन्धनों से छुटकारा दिला सकता है । तप के अभाव में साधक कभी भी अपनी साधना में सफल नहीं हो सकता तथा मानव-जीवन का लाभ नहीं उठा सकता। कहा भी
अध्रुवे हि शरीरे यो, न करोति तपोऽर्जनम् ।
। तपाजनम् । सपश्चात्तप्यते मूढो, मृतो गत्वात्मनो गतिम् ॥ यह शरीर क्षणभंगुर है। इसमें रहते हुये जो जीव तप का उपार्जन नहीं करता, वह मूर्ख मरने के बाद, जब उसे अपने दुष्कर्मों का फल मिलता है, बहुत पश्चात्ताप करता है। ___इन सब बालों से स्पष्ट है कि तप की महिमा अपरंपार है और भव्य प्राणी तप के द्वारा ही पापों की निर्जरा करके अपने चारित्र को उज्ज्वल बनाता हुआ अपने सर्वोच्च ध्येय को प्राप्त कर सकता है। तपस्या कैसे हो?
हमने तपस्या के महत्त्व को समझा है और जाना है कि तपस्या के बल पर ही आत्मा तपाये हुये सुवर्ण के सदृश निर्मल, निष्कलुष एवं दैदीप्यमान बन सकती है। ___ आप कहेंगे कि 'तपस्या तो हम लोग खूब करते हैं और हमारी बहनें तो इस कार्य में हमसे भी पचास कदम आगे हैं। प्रत्येक चातुर्मास में सैकड़ों उपवास, बेले, तेले, अठाइयां और मासखमण अर्थात् एक-एक महीने की तपस्या भी वे कर जाती हैं।'
___ मैं भी इस बात को मानता हूँ और जानता हूँ कि आप लोग तपस्या करते हैं। किन्तु बंधुओं ! तपस्या करके भूखे रहने के साथ-साथ मन की भावनाएँ भी जितनी पवित्र, दृढ़ और विशुद्ध रहनी चाहिये, क्या वैसी ही आपकी रहती हैं ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org