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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
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[१८] दुष्काल के समय पाटलिपुर के श्रावकों की मनोदशा एवं
साधुओं के शिथिलाचार की झाँकी।
-"आपसे हमारी यह अनुनय-विनय है कि आप सभोजन हमारे घरों से सम्मान सहित पात्र भरकर आहार (भोजन) ले आया कीजिए और फिर यहां वसति ( मन्दिर ) के भवनों में सिद्धों को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उस आहार को हाथों में क्षेपण कर निरन्तर चर्या करते रहिए। इस विधान से चर्या का ( भिक्षा का ) सेवन कीजिए और अपने चित्त में काल के परिवर्तन का अनुभव कीजिए कि कैसा दुष्काल आ गया है ?
तब उन मिथ्यादृष्टि-मुनियों ने श्रावकों के कथन को स्वीकार कर लिया किन्तु उन मिथ्यादष्टियों की भावनाओं से आचार्य-गण अपने-अपने मन में बड़े दुःखी हो गये।
पुनः अन्य किसी एक दिन कालरूप (भयंकर ) नग्न एवं दीर्घबाह एक दिगम्बर-मुनि भिक्षा के निमित्त एक श्रावक के घर गया। उस घर में एक मिथ्यात्त्व-दोष से मुक्त गृहिणी भी थी, जो गर्भवती थी। मुनि के बीभत्स ( भयानक ) रूप को देखकर उसका गर्भ खिसक गया ( गर्भपात हो गया)। वह इतनी डर गयो कि एक क्षण को भी अपना भय न छोड़ सकी। उसने हाहाकार मचा दिया । ___ तब परिजनों में भी (परिवार के जनों में और पुरजनों में भी ) हा-हा रव (शब्द ) होने लगा और वे कहने लगे कि कहाँ से यह मुनि यहां आ गया ?
तब श्रावकों ने उस ( घटना) को बड़ा अनर्थ ( अनिष्ट ) माना और ऋषिवरों के चरणों में प्रणाम कर (पूज्य गुरुओं से) निवेदन किया कि "कटि में ( कमर में ) पट (लंगोटी ) बाँधकर, कम्बल ओढ़कर विगतमल (निर्मल ) स्वच्छ कमण्डल को छोड़कर तया श्वानों (कुत्तौ ) के भय से दण्ड को ( लकड़ी को) हाथ में धारण कीजिए और इसी विधान से भिक्षा के लिए विहार किया कीजिए।"
पत्ता-तब उन श्रावकों के कथन का उन मुनिवरों ने अवगणन नहीं किया (तिरस्कार-निरादर नहीं किया )। लंगोटी पहिनकर तथा कम्बल ओढ़कर वे स्नेहपूर्वक श्रावकों के घर से नित्य हो सम्बल ( भिक्षा-भोजन ) लाने लगे-॥१८॥
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