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________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक [१४] आकाशवाणी द्वारा अपनी मायु अल्प जानकर भद्रबाहु विशाखनन्दी के नेतृत्व में साधुसंघ को चोल-देश की ओर भेज देते हैं। चन्द्रगुप्त गुरुसेवा के निमित्त वहीं रह जाता है। भद्रबाहु उसे कान्तार-चर्या का आदेश देते हैं। वहाँ ऋषिकल्प भद्रबाहु जब स्वाध्याय करते हुए स्थित थे तभी मध्यरात्रि में एक शब्द उत्पन्न हुआ (अर्थात् एक वाणी सुनाई दी) कि-"तुम्हारी निषिद्धिका ( समाधिभूमि ) यहाँ ही होगी। आकाशवाणी ने तुम्हारे लिए यही घोषणा की है।" उस (आकाश ) वाणी को सुनकर ऋषिकल्प भद्रबाहु ने अपने निमित्तज्ञान से जान लिया कि “अपने पवित्र मुनिपद को भायु अब थोड़ी ही रह गयी है।" तब उन्होंने श्रुतज्ञानी श्रीविशाखनन्दि-मुनिपुंगव को संघ का आधार ( नायक आचार्य) बनाकर सबसे क्षमापण (क्षमाकर ) कर संघ को विसजित कर दिया ( आगे भेज दिया ) और पावन महामुनि चन्द्रगुप्त उन्हीं ऋषिकल्प के पास यह सोचते हुए रह गये कि-"बारह वर्षों तक गुरुपद (चरणों) की सेवा करता हुआ इसी अटवी में अपने समय को व्यतीत करता रहूँगा। जो शिष्य अपने गुरु के पर्दो की आराधना नहीं करता, वह तपश्चरण से शिव-साधना क्या करेगा ?" इस प्रकार कहते हुए वे चन्द्रगुप्त महामुनि परमार्थ से (निश्चय से ) वहीं ठहर गये और उन मुनीन्द्रों के साथ उन्होंने आगे का विहार नहीं किया। __ ऋषि भद्रबाहु जीवित रहने की आशा छोड़कर अनशन मांडकर ( अर्थात् चतुर्विध आहार का सर्वथा आजीवन त्यागकर ) समाधिस्थ हो गये और चन्द्रगुप्त भी उपवास करते हुए तथा गुरु की सेवा करते हुए वहीं पर स्थित रहे। तभी गुरु श्री भद्रबाहु स्वामी ने वहाँ उन चन्द्रगुप्त मुनि से कहा-“हे वत्स सुनो, जिनसूत्र में ऐसा प्रकाशित किया गया है ( स्पष्ट किया गया है ) कि साधु को अपनी कान्तार ( वन )-भिक्षा के लिए जाना चाहिए और वहाँ अलाभ होने पर प्रोषध ( उपवास ) करना चाहिए। मार्ग का आलोचन प्रथम विधेय है । वह अपने (अन्तराय) कर्म के प्रमाण जानना चाहिए।" घत्ता-गुरु के वचनों को सुनकर तथा उनके चरणों में प्रणामकर मुनिराज चन्द्रगुप्त भिक्षा के लिए अटवी में गये। उसी समय वहाँ एक प्रवरगुणी यक्षिणी उस मुनिराज के तप को ( ब्रह्मचर्य की) परीक्षा के लिए वहां आयी ॥१४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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