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भद्रबाहु - चाणक्य- चन्द्रगुप्त कथानक
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नकुल ( अशोक का पुत्र ) के पुत्र चन्द्रगुप्त ( सम्प्रति ? ) द्वारा १६ स्वप्न-दर्शन ।
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उस नकुल का सज्जनों को आनन्दित करनेवाला चन्द्रगुप्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । नृप-पद के पालन करने में उत्कंठित वह चन्द्रगुप्त अपनी प्रौढ़ावस्था में राजगद्दी पर बैठा । उसकी बुद्धि जैनधर्म के प्रति तृषित ( पिपासु ) रहती थी । वह निरन्तर ही मुनिनाथों के लिए दान ( आहार- दान ) दिया
करता था ।
अन्य किसी एक दिन उस राजा चन्द्रगुप्त ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोते हुए सोलह स्वप्न देखे । उसने पहले स्वप्न में अस्तंगत सूर्य को देखा । दूसरे स्वप्न में कल्पवृक्ष को टूटी हुई शाखा देखी । तीसरे स्वप्न में उल्टा जाता हुआ इन्द्रविमान देखा | चौथे स्वप्न में फुफकारते हुए बारह फणवाले सर्प को देखा । पाँचवें स्वप्न में शशिमण्डल का भेद ( टुकड़ा ) देखा । छठवें स्वप्न में जूझते हुए काले अनिष्ट हाथी देखे । सातवें स्वप्न में चमकते हुए खद्योतों को देखा । आठवें स्वप्न में मध्य में सूखा महान् सरोवर देखा । नौवें स्वप्न में गगन में विस्तीर्ण धूम के पूर को देखा । दसवें स्वप्न में सिंहासन पर बैठे हुए वनचरसमूह को देखा । ग्यारहवें स्वप्न में तीव्रतापूर्वक घुरघुराते ( गुर्राते ) हुए कुत्तों को सोने की थाली में खीर खाते हुए देखा । बारहवें स्वप्न में करिवर के कन्धे
पर आरूढ़ वानर को देखा । तेरहवें स्वप्न में कचरा के मध्य में उत्पन्न उत्तम कमलों को देखा । चौदहवें स्वप्न में मर्यादा का उल्लंघन करते हुए समुद्र को देखा । पन्द्रहवें स्वप्न में बाल-वृषभों को उत्तम रथ को घुरा में जोता हुआ देखा एवं सोलहवें स्वप्न में उस चन्द्रगुप्त ने तरुण बैल पर आरूढ़ अतुलब लशक्तिवाले एक क्षत्रिय को देखा ।
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घत्ता - इस प्रकार स्वप्नों को देखकर वह राजा चन्द्रगुप्त जब प्रभातकाल में चिन्तातुर होकर बैठा था कि तभी उस नगरी ( पाटलिपुर ) के समीपवर्ती वन ( उद्यान) में परमगुरु श्री भद्रबाहु मुनि पधारे ॥१०॥
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