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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[८] शकट एवं ब्राह्मण-चाणक्य का परिचय । शकट के अनुरोध पर चाणक्य प्रतिदिन महानस के स्वर्णासन पर बैठकर भोजन करने लगता है। अवसर पाकर शकट उसका आसन बदलकर वंसासन कर देता है।
- "हे मित्र, कहो तो, यह क्या कर रहे हो । विफल ( फलरहित ) दर्भो के लिए तुम क्या दे रहे हो ?" तब चाणक्य नामवाले उस ( अपरिचित ) पुरुष ने (शकट को ) उत्तर में तत्काल ही कहा- "इन दर्शों ने मेरा कई बार पैर बांध दिया है। इसी कारण जड़सहित इन्हें आज ही खोदकर, सुखाकर, पुनः उन्हें सावधानीपूर्वक जलाकर, उनकी राख बनाकर, उसे रोद्र-समुद्र में फेंक दूंगा, तभी मैं निःशल्य होऊँगा।"
तब शकट ने अपने मन में विचार किया कि यह चाणक्य ( निश्चय ही ) मनुष्यों में अत्यन्त विषम ( तीव्र-प्रचण्ड ) कषायवाला है। इसके होते हुए मेरा बैरभाव परिपूर्ण होगा। यह अच्छा उपाय रहेगा। नन्द राजा के वंश का यही व्यक्ति क्षय करेगा। ऐसा जानकर ( समझकर ) उसने उसके साथ स्नेह किया। फिर नृप की भोजन-शाला में पधारने की प्रार्थना की ( और कहा कि )-"मैं सुवर्णथाल में सबसे आगे आसन पर बैठाकर प्रतिदिन भोजन कराऊँगा। आप वहाँ चलिए।" तब चाणक्य शकट मन्त्री के साथ उसके घर आया।
घत्ता-अत्यन्त सम्मानपूर्वक भोजन करते हुए जब उस चाणक्य का कुछ काल व्यतीत हो गया तभी मन्त्री शकट ने उसके भोजन का आसन (क्रम) चलायमान कर दिया (-बदल दिया)। तब चाणक्य ने उससे ( इसका कारण) पूछा-॥८॥
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