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________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक प्रास लेने के बजाय लालचवश बीच के उष्णभाग में अंगुली डालकर अपनी अंगुली को जला लेता है, उसी प्रकार चाणक्य-चन्द्रगुप्त की भी पराजय हुई क्योंकि उसने शत्रु के सुसंगठित क्षेत्र पर आक्रमण करने से पूर्व आसपास के प्रदेशों पर अपना अधिकार नहीं किया। इससे शिक्षा लेकर वह चाणक्य हिमवन्तकूट गया और वहां के राजा पर्वतक से मित्रता-समझौता कर सर्वप्रथम सीमान्तप्रान्तों को अपने वश में किया।" तत्पश्चात् अपनी सैन्य-शक्ति को बढ़ाकर तथा उपयुक्त अवसर देखकर मगध पर आक्रमण कर धननन्द को पराजित किया तथा उसे अपनी दो पत्नियों एवं एक पुत्री के साथ पाटलिपुत्र से निकालकर चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक किया। स्थविरावलीचरित के अनुसार चाणक्य बिन्दुसार का भी मन्त्री था। मंजुश्रीमूलकल्प से भी इसका समर्थन होता है। यथा : कृत्वा तु पायकं तीवं त्रीणीराज्यानि वै तदा । दीर्घकालभिजीवी सौ भविता द्विज कुत्सितः ॥ ४५५-५६ चाणक्य ने धननन्द के भूतपूर्व मन्त्री सुबन्धु को भी बिन्दुसार का आप्तसचिव बनवा दिया और स्वयं वह मन्त्रिपद का परित्याग कर वन में साधना करते हुए समाधिमरण का इच्छुक था किन्तु दुष्ट सुबन्धु ने किसी कारणवश उसके निवास में आग लगवा दी, जिसमें जलकर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कुछ विद्वानों को इसमें सन्देह हो सकता है कि चाणक्य जब ब्राह्मण था, तब वह जैन कैसे हो सकता है ? इसके उत्तरस्वरूप केवल इतना जान लेना पर्याप्त है कि जैन कोई जाति नहीं, वह एक धर्म है और जो उस धर्म का अनुयायी है, वही जैन कहला सकता है। जैन-सिद्धान्त के अनुसार जाति जन्म से नहीं, कर्म से बनती है । आगे चलकर भले ही उस मान्यता में अन्तर आ गया हो किन्तु चाणक्य के समय तक सभी धर्मों के प्रति पारस्परिक उदारता की भावना थी और कोई भी वंश या परिवार किसी भी धर्म का अनुयायी हो सकता था। उससे उसकी सामाजिकप्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आती थी। भगवान् महावीर के प्रधान गणधर का नाम गौतम था, जो वेद-वेदांग के प्रकाण्ड ब्राह्मण-पण्डित थे किन्तु वे जैनधर्मानुयायी बनकर आद्य जैनगुरु कहलाये । इन सन्दर्भो को ध्यान में रखकर ब्राह्मणचाणक्य को भी जैनधर्मानुयायी मानने में कोई आपत्ति नहीं। जैनेतर-साहित्य में चाणक्य के उत्तरवर्ती जीवन के विषय में चर्चा क्यों नहीं ? इसका सम्भवतः एक कारण यह भी हो सकता है कि चन्द्रगुप्त के १. स्थविरावलीचरित ८३०१-१७ । २. वही ८०४४७-६९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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