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________________ भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त चाणक्य कथानक अपने पुरुषार्थ से मगध साम्राज्य को पश्चिम में गंगा, उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विन्ध्याचल तक विस्तृत किया था। विश्व-विजय का आकांक्षी यवनराज सिकन्दर भारत-आक्रमण के समय पंजाब से आगे नहीं बढ़ सका, उसका मूल कारण नन्दों की शक्ति का प्रभाव ही था। विविध परम्पराएं इन ऐतिहासिक नन्द राजाओं के विषय में प्राचीन साहित्य में बहुत-कुछ लिखा गया है, किन्तु दृष्टिकोणों की विविधता से उनकी अनेक घटनाओं में मेल नहीं बैठता। इन दृष्टिकोणों को वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्परा में विभक्त किया जा सकता है। नन्द विषयक वैदिक-परम्परा के दर्शन विष्णुपुराण, भागवतपुराण, मत्स्यपुराण, वायुपुराण, कथासरित्सागर एवं मुद्राराक्षस नाटक (विशाखकृत) में होते हैं। इनमें नन्दवंश की उत्पत्ति, एवं कार्यकलापों को चर्चा मिलती है । उनके अनुसार नन्दवंश का संस्थापक-शासक महापद्म या महापद्मपति था। इस साहित्य में उसका उल्लेख शूद्रगर्भोद्भव', सर्वक्षत्रान्तक एवं एकराट् जैसे विशेषणों के साथ किया गया है। इससे यह प्रतिभाषित होता है कि उसने शैशुनाग राजाओं के समकालीन इक्ष्वाकु, पाञ्चाल, काशी, कलिंग, हैहय, अश्मक, कुरु, मैथिल, शूरसेन एवं वोतिहोत्र प्रभृति राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। कथासरित्सागर, खारवेल-शिलालेख, आन्ध्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर स्थित नान्देर (नवनन्द देहरा नामक स्थान ) तथा प्राचीन कुन्तलदेश के अभिलेखों से भी उसके विशाल साम्राज्य के अधिपति होने का समर्थन होता है । वैदिक-साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भो के अनुसार नवनन्दों ने १०० वर्षों तक लगातार शासन किया किन्तु आश्चर्य यह है कि नन्दवंश के सभी राजाओं के नाम इस साहित्य में नहीं मिलते। उक्त पुराण-साहित्य के अनुसार नन्दवंश के अन्तिम राजा का नाम धन अथवा धननन्द था। कथासरित्सागर के अनुसार उसके पास ९९० कोटि स्वर्णमुद्राएं सुरक्षित थीं। १-३. विष्णुपुराण ४।२४।२० ४. कथासरित्सागर-कथापीठलम्बक, तरंग ५-६ ५. खारवेल शिलालेख पंक्ति सं० १२ ६-७. ३० C. J. Shah-Jainism in Northern India P. 127–8. ८. दे० Age of Imperial Unity Page 31. ९. ६० कथासरित्सागर-नवनवतिशतद्रव्यकोटीश्वरः १।२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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