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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुत कथानक सकती। रस की अमृत-स्रोतस्विनी प्रवाहित करने के साथ-साथ भण-संस्कृति के चिरन्तन आदर्शों की प्रतिष्ठा करनेवाला यह प्रथम सारस्वत है, जिसके व्यक्तित्व में एक साथ प्रबन्धकार, दार्शनिक, आचारशास्त्र-प्रणेता, इतिहासकार एवं क्रान्तिदृष्टा का समन्वय हुआ है। __ महाकवि रइधू के निवास-स्थल के विषय में निश्चित जानकारी नहीं मिलती । किन्तु उनकी प्रशस्तियों से इतना निश्चित है कि उन्होंने गोपाचल (ग्वालियर ) में अपनी साहित्य-साधना की थी। कुछ ग्रन्थों का प्रणयन उन्होंने तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह के विशेष अनुरोध पर गोपाचल-दुर्ग में रहकर भी किया था। कवि को लोकप्रियता का इसीसे पता चलता है कि उनकी प्रेरणा से गोपाचल-दुर्ग में राजकीय-व्यय पर लगभग ३३ वर्षों तक अगणित जैन-मूर्तियों का निर्माण एवं प्रतिष्ठाएं हुई थीं। दुर्ग की लगभग ६३ गज ऊंची सर्वोच्च आदिनाथ-जिन की मूर्ति की स्वयं उन्होंने ही प्रतिष्ठा की थी। ___ महाकवि रइधू ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी में अनेक ग्रन्थों की रचना की जो निम्न प्रकार हैं :
(१) पार्श्वनाथचरित (२) धन्यकुमारचरित (३) सुकोसलचरित (४) त्रिषष्ठिशलाकामहापुराणपुरुषचरित (५) पुण्याश्रवकथाकोष (६) यशोधरचरित (सचित्र) (७) कोमुदीकथाप्रबन्ध (८) वृत्तसार (९) जिमंधरचरित (१०) सिद्धचक्र-माहात्म्य (११) सन्मतिजिनचरित (१२) मेघेश्वरचरित (१३) अरिष्टनेमिचरित (१४) वलभद्रचरित (१५) सम्यक्त्वगुणनिधानकाव्य (१६) सोलहकारण जयमाल (१७) दशलक्षण जयमाल (१८) अनस्तिमितकथा (१९) बारहभावना (२०) शान्तिनाथपुराण (सचित्र) (२१) आत्मसम्बोधकाव्य (२२) सिद्धान्तार्थसार (२३) संबोधपंचाशिका एवं (२४) भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक ।
उनको ज्ञात किन्तु अनुपलब्ध रचनाएं निम्न प्रकार है-(१) प्रद्युम्नचरित (२) करकंडुचरित एवं (३) भविष्यदत्तचरित ।
रइधू-साहित्य की विशेषता
कवि रइधू के साहित्य को सबसे बड़ो विशेषता यह है कि उन्होंने अपने प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ एवं अन्त में विस्तृत प्रशस्तियां लिखो हैं। उनमें उन्होंने समकालीन भट्टारकों, राजाओं, मूर्तिनिर्माताओं एवं नगरसेठों की विस्तृत १. इनकी प्रतिलिपियां सम्पादक के पास सुरक्षित हैं तथा उनका सम्पादन-कार्य
चल रहा है।
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