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प्रस्तावना
आचार्य भद्रबाहु पृष्ठभूमि : श्रमण-संस्कृति की प्राचीनता-अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में भारत के ऐतिहासिक सर्वेक्षण के क्रम में प्राच्य विद्याविदों का ध्यान भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंग-श्रमण-संस्कृति की ओर गया और योरुपीय विद्वानों में हिली, विल्सन, कोलबुक, थॉमस, हेमिल्टन, डिलामाइन, याकोबी, हाप्किन्स बुहलर स्मिथ, हायर्नले एवं डॉ. वाशम जैसे विद्वानों तथा पं. भगवानलाल इन्द्रजी, डॉ. के. पी. जायसवाल, आर. पी. चन्दा, के. बी. पाठक, डॉ. भण्डारकर, डॉ. घोषाल, पं. नाथूराम प्रेमी, मुनि पुण्यविजयजी, कल्याणविजयजी, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, डॉ. कामताप्रसाद जैन, प्रभृति भारतीय विद्वानों ने उक्त विषय की प्राचीनता के विषय में सर्वांगीण गम्भीर ऊहापोह किया। कुछ समय तक पर्याप्त साधन-सामग्री के अभाव में श्रमणधर्म अर्थात् जैनधर्म को वैदिक अथवा बौद्धधर्म की एक शाखा सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया, किन्तु शनैः-शनैः प्राचीन जैन साहित्य, पुरालेख एवं अन्य पुरातात्विक सामग्री की उपलब्धि तथा उनका गहन तुलनात्मक अध्ययन किये जाने के बाद उक्त भ्रम का वातावरण पर्याप्त मात्रा में दूर हो गया। डॉ. हर्मन-याकोवी एवं बुहलर जैसे निष्पक्ष चिन्तकों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए, जिन्होंने अपनी गम्भीर खोजों के बाद उसकी प्राचीनता, स्वतन्त्र-सत्ता और उसके महत्त्व को सिद्ध करनेवाले ठोस सन्दर्भो एवं प्रमाणों को प्रस्तुत किया। इस विषय में डॉ. सी. जे. शाह के निम्न विचार पठनीय है :
"Happily there has been a positive change in the outlook towards Jainism and it has been restored to its due place among the religions of the world in view of the glorious part it played in the past and its contribution to the progress of world culture and civilization, which is not inferior to the contribution of any other religion on the globe."
१. C.J. Shah-Jainism in Northern India, introduction
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