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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक १६।१० चोलदेसि ( चोलदेश )-दक्षिण भारत का एक प्रमुख प्राचीन स्वाधीन देश । वर्तमान इतिहासकारों ने वर्तमान कर्नाटक के दक्षिण-पूर्वी भाग अर्थात् मद्रास और उसका उत्तरवर्ती कुछ अंश तथा प्राचीन मैसूर रियासत को मिलाकर उसे प्राचीन चोलदेश माना है ।
१९।१ वसहि (वसतिका)-ध्यान एवं अध्ययन की सिद्धि के लिए एकान्त गुफा अथवा शून्य स्थान । ( विशेष के लिए दे० भगवती आराधना )।
१९।२ दारुपत्ति-काष्ठपात्र अर्थात् लकड़ी के बने हुए विशेष बर्तन ।
१९।२ अंतराय-सत्कार्यों में विघ्न आ जाने की अन्तराय कहते हैं । वह पांच प्रकार का है-दानान्तराय, लाभान्त राय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय एवं वार्यान्तराय ।
१९।५ णिसहि (निषोधिका)-अर्हदादिकों एवं मुनिराजों का समाधिस्थल । भगवती-आराधना में बताया गया है कि निषोधिका को सर्वथा एकान्त स्थान में होना चाहिए । उसे निर्जन्तुक, समतल एवं प्रकाशपूर्ण होना चाहिए। उसे गीला नहीं होना चाहिए। उसे क्षपक की वसतिका से नैऋत्य-दिशा में, दक्षिण दिशा में अयवा पश्चिम दिशा में होना चाहिए। इस प्रकार को निषोधिका प्रशस्त मानी गयी है।
१९११० पारणा-इन्द्रियों को वश में रखने के लिए दिन में एक बार खड़े होकर यथालब्ध गद्धि रहित एवं रस-निरक्षेत्र तथा पुष्टिहीन निर्दोष-आहार लेने को पारणा कहा जाता है ।
२०।१ खुल्ल (-क्षुल्लक )-आचार में छोटा साधु । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि श्रावक की ११ भूमिकाओं (प्रतिमा मी) में सर्वोत्कृष्ट भूमिका का नाम क्षुल्लक है । वह एक श्वेत कौपीन एवं एक चादर मात्र धारण करता है । अमरकोषकार के अनुसार क्षुल्लक के अपग्नाम इस प्रकार हैं-विवर्ण, पामर, नीच, प्राकृत, पृथग्जन, निहीन, अपसद, जाल्म और क्षुल्लक ।
२०१०. आलोयण ( आलोचना)-गुरु के समक्ष निश्छल-भाव से अपने छोटे-बड़े सभी दोषों को स्पष्ट रूप से कह देना। आलोचना वीतराग के समक्ष हो की जाती है, सरागी के सम्मुख नहीं ।
२११८. पाणिपत्ति (पाणिपात्र) -हथेली पर रखकर आहार लेना।
२२।३. वितरु ( व्यन्तरदेव )-तत्त्वार्थसूत्र में व्यन्तर आठ प्रकार के बतलाये गये हैं-किन्नर किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत एवं पिशाच ।
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