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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक मगध सम्राट् चन्द्रगुप्त (प्रथम ) के लिए 'अर्थशास्त्र' की रचना की थी, जैसा कि उल्लेख मिलता है :
सर्वशास्त्राण्यनुक्रम्य प्रयोगमुपलभ्य च ।
कौटिल्येन नरेन्द्रार्थं शासनस्य विधिः कृतः ॥ चाणक्य की तुलना यूनानी विचारक अरस्तू से की जाती है। दोनों समकालीन थे। उनमें से एक सिकन्दर महान् का गुरु था, तो दूसरा चन्द्रगुप्त महान् का। [ चाणक्य सम्बन्धी जैन सन्दर्भो के लिए इसी ग्रन्थ की प्रस्तावना एवं परिशिष्टं देखिए ।
९।७ चंदगुत्ति ( चन्द्रगुप्त )-मौर्यवंश का संस्थापक प्रथम पराक्रमी वीर सम्राट् । भारतीय इतिहास का सम्भवतः यह प्रथम उदाहरण था कि अपने बलबूते एवं पौरुष पर एक साधारण स्थिति का युवक भी मगध जैसे विश्वप्रसिद्ध साम्राज्य का अधिपति बन गया। मगध की बागडोर हाथ में आते ही उसकी महत्त्वाकांक्षाएं जाग उठीं। यूनानो लेखक प्लूटार्क तथा जस्टिन के अनुसार चन्द्रगुप्त सम्पूर्ण भारत का सम्राट् था। उसने यूनानी शासक सिल्यूकस को हराकर उससे ऐरिया (हेरात ), एराकोसिया ( कान्धार), परोपनिसीद ( काबुलघाटी ) तथा गेद्रोसिया ( बलूचिस्तान ) अपने अधिकार में ले लिये थे। उसने प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से १८ व्यक्तियों की एक मन्त्रि-परिषद् तथा २६ विभागाध्यक्षों की नियुक्ति की थी। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से ही उसने अपना साम्राज्य निम्न पाँच भागों में विभक्त किया था
१. उत्तरापथ-( राजधानी तक्षशिला ), २. दक्षिणापथ-( राजधानी-सुवर्णगिरि ), ३. प्राच्य-( राजधानी-पाटलिपुत्र), ४. अवन्तिरथ-( राजधानी-उज्जयिनी ) एवं ५. कलिंग-( राजधानी-तोषलि )।
जैन इतिहास एवं शिलालेखों के अनुसार मगध की राजगद्दी प्राप्त करने के कुछ ही वर्षों बाद चन्द्रगुप्त ने आचार्य भद्रबाहु से जैन-दीक्षा ग्रहण कर ली तथा उनके साथ दक्षिणाटवी के कटवप्र ( वर्तमान श्रवणबेलगोला, कर्नाटक ) में जाकर घोर तपस्या की। देशी एवं विदेशी अनेक प्राच्य विद्या-विदों ने इन उल्लेखों को प्रामाणिक माना है । [ चन्द्रगुप्त मौर्य सम्बन्धी जैन-मान्यताओं की विशेष जानकारी हेतु इस ग्रन्थ को प्रस्तावना एवं परिशिष्टें देखिए ] ।
९।११ बिन्दुसार-चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र, जो चन्द्रगुप्त के जैन-दीक्षा ग्रहण कर लेने के बाद मगध की राजगद्दी पर बैठा। १६वीं सदी के तिब्बती
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