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________________ ९६ (१२) नक्षत्र — (१३) जयपाल ( अपरनाम यशपाल अथवा जसफल ) (१४) पाण्डव - (१५) ध्रुवसेन ( या द्रुमसेन ) - (१६) कंसाचार्य - भद्रबाहु - चाणक्य- चन्द्रगुप्त कथानक (१७) सुभद्र (१८) यशोभद्र ( प्रथम ) केवल ११ अंगधारी ई० पू० १८२-१६४ श्रुतावतार अथवा भद्र या अभय (१९) भद्रबाहु ( द्वितीय ) अथवा यशोबाहु (२०) लोहाचार्य या लोहार्य ( ३ ) अंग — 26 " Jain Education International "" " १० अंगधारी "" ८ अंगधारी 11 39 "" 33 "" ई० पू० 11 ܝ १६४-१४४ १४४-१०५ १०५ - ९१ ९१- ५९ "" "" ३५- १२ "3 17 ५९ - ५३ श्रुतावतार ५३- ३५ १२ से सन् ३८ ई० ११ अगनिमित्त (अष्टांग निमित्त ) - आठ महानिमित्तों में कुशलता प्राप्त करना अष्टांग महानिमित्तज्ञता कहलाती है । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार अष्टांग निमित्तज्ञान इस प्रकार हैं : :― J. "" "" ( १ ) अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान-ग्रह- उपग्रह देखकर भावी सुख-दुख का ज्ञान । ( २ ) भौम For Personal & Private Use Only "" पृथिवी के घन, सुषिर आदि गुणों को विचारकर ताँबा, लोहा आदि धातुओं की हानि-वृद्धि तथा दिशाविदिशा को देखकर और अन्तराल में स्थित चतुरंग-बल को देखकर जय-पराजय को जानना । मनुष्यों एवं तियंचों के अंगोपांगों के दर्शन एवं स्पर्श से वात, पित्त एवं कफ रूप तीन प्रकृतियों एवं सप्तघातुओं को देखकर तीनों कालों में सुख-दुःख या मरणादि को जानना । उत्पन्न होने वाले ( ४ ) स्वर - (५) व्यंजन - सिर, मुख एवं कन्धे आदि के तिल एवं मस्से आदि को देखकर तीनों कालों के सुखों-दुखों को जानना । मनुष्यों एवं तियंचों के विचित्र शब्दों को सुनकर त्रिकाल में होने वाले दुखों सुखों को जानना । ( ६ ) लक्षण - हाथ-पैर के नीचे की रेखाएँ तथा तिल आदि देखकर तीनों काल सम्बन्धी सुखों-दुखों को जानना । www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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