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________________ ५४ श्रावकधर्मप्रदीप द्वार अपनेआप बन्द हो जायगा और लोक जन-कल्याण के प्रदान करनेवाले इस मार्ग से वञ्चित रह जाँयगे और उनका कल्याण न हो सकेगा, अतः उपगूहन अंग का पालन करना अत्यावश्यक है। ____ भावार्थ- यद्यपि जैनधर्म और उसे धारण करने का मार्ग इतना सुन्दर और शुद्ध है, वह त्रिकाल में भी निन्दा योग्य नहीं हो सकता तथापि यह भी सुनिश्चित है कि धर्म कोई मूर्तिमान् पदार्थ नहीं है। वह तो जीव का एक शुद्ध परिणाम रूप है। वह अन्तरंग धर्म या भाव धर्म कहलाता है और उन पवित्र परिणामवाले व्यक्तियों का जो वचन या शरीरसम्बन्धी आचरण है वह बाह्यचारित्र या द्रव्यचारित्र कहलाता है। इसका यह तात्पर्य हुआ कि धर्म किसी न किसी व्यक्ति के आश्रित ही पाया जायगा जो भी उसे धारण करे। यदि धर्मरूप आचरण करनेवाला व्यक्ति केवल द्रव्य-आचरण का पालन करता है। अन्तरंग चारित्र अर्थात् भावधर्म से शून्य है तो वह धर्मात्मा नहीं है, वह धर्मात्मा की वाह्य क्रियाओं की नकल करके धर्मात्मा बनना चाहता है या अपने को धर्मात्मा कहलाना चाहता है। ऐसी स्थिति में ही यह अधिक सम्भव है कि भावशून्य क्रियाएँ उस व्यक्ति में शिथिलता उत्पन्न कर दें। उस शिथिलता से केवल इस व्यक्ति की ही निन्दा होनी चाहिए थी न कि धर्म की, तथापि इस स्थिति से अनभिज्ञ अज्ञानी पुरुष धर्म की ही निन्दा करने लगते हैं। कभी-कभी कोई कोई मिथ्यादृष्टि पुरुष सद्धर्म से स्वभावगत विरोध के कारण सच्चे सन्मार्गी धर्मात्माओं को भी मिथ्या दोष लगा देते हैं और इस प्रकार धर्मात्मा की निन्दा से स्वयं धर्म की निन्दा होने लगती है। कभी-कभी अनेक स्त्रियाँ, बालक, वृद्ध या रोगी पुरुष अपने उत्साह अनुराग व भक्तिवश धारण किए हुए धर्म को अपनी गलती या शारीरिक कमजोरी के कारण ठीक पालन नहीं कर पाते और इसलिए भी धर्म की निन्दा लोक में होने लगती है। ___ सारांश यह है कि निन्दा दो तरह उत्पन्न होती है- या तो धर्म पालकों की गलतियों से या निन्दकों की अज्ञानता या दुर्भाव से। ऐसी स्थिति में दूसरे धर्मात्मा व सज्जन पुरुष का कर्तव्य हो जाता है कि वह जैसे भी हो इस निन्दा के भाग को दूर कर धर्म की ज्योति जनता में जागृत करे। निन्दा दूर करने के अनेक उपाय हैं जिनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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