SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैष्ठिकाचार को अमूढदृष्टि नामक चौथा अंग कहा है।२८। प्रश्न:-वदोपगूहनाङ्गस्य किं चिह्न विद्यते गुरो। हे गुरो! पञ्चमस्य उपगूहनाङ्गस्य किं लक्षणं विद्यते इति प्रश्ने सति उत्तरयत्याचार्यः। हे गुरो! पाँचवें उपगूहन अंग का क्या स्वरूप है इस प्रश्न पर आचार्य कहते हैं (वसन्ततिलका) विज्ञानशून्यमनुजैर्विमुखैः स्वधर्माज जाता जिनेन्द्रसुमतस्य यदि प्रणिन्दा। ज्ञानैर्धनैर्भवहरैरपनीयते यैः तेषां हि सर्वसुखदं छुपगृहनाङ्गम् ।।२९।। विज्ञानेत्यादिः- अनादिपरम्पराप्रवाहायाते जैनसंघे क्वचित् कदाचित् स्वधर्माद्विमुखैजैनाचारानभिज्ञैर्विज्ञानशून्यमनुजैः स्वात्मज्ञानपराङ्मुखैः पुंभिः अज्ञानात्प्रमादात् शारीरिक-मानसिकासामर्थ्यात् यदि जिनेन्द्रसुमतस्य जैनमार्गस्य निन्दाजाता स्यात् तर्हि भवहरैर्यैः सत्पुरुषैः ज्ञानैर्धनैर्वा साऽपनीयते तेषामेव सर्वसुखदं पञ्चमं उपगूहनाख्यं अङ्गं भवति। उप-समन्तात् गूहनं-रक्षणं इति उपगूहनम् । येन केन प्रकारेण जैनमार्गस्य रक्षणं कर्तव्यम् । यदि जैनमार्गस्य लोके निन्दा प्रचालिता स्यात् तदा सर्वे प्राणिनस्ततो विमुखीभविष्यन्ति तथा सति कपाटितमेव धर्मद्वारं स्यात्, अतस्स्वसामर्थ्यात् धर्मरक्षणं कर्तव्यम् । तदेव उपगूहानख्यं सम्यक्त्वस्याङ्गम् ।२९। ___ अनादि कालीन परम्परा के प्रवाह में चले आए हुए इस विशाल जैन संघ में यदि कभी किसी श्रावक या श्राविका, मुनि या आर्यिका के द्वारा अपने अज्ञान या प्रमाद से अथवा शारीरिक वाचनिक या मानसिक कमजोरी के द्वारा चरित्र से विचलित हो जाने के अथवा पापोदय से मिथ्या अपवाद के कारण या दुष्ट जनों के द्वारा द्वेषवश लगाए गए दोषों के कारण जिनोक्त पवित्र धर्म की निन्दा उत्पन्न होजाय तो सम्यग्ज्ञानी, सुचरित पुरुषों को जिस प्रकार बने उस अपवाद को दूर करना चाहिए इस कार्य को सम्यग्दर्शन का उपगूहन अंग कहा है। उपशब्द का अर्थ है समीप से और गूहन शब्द का अर्थ है रक्षण करना। इसका यह तात्पर्य हुआ कि जैनमार्ग की जो स्वयं शुद्ध है निन्दा योग्य नहीं है, फिर भी यदि उसकी किसी प्रकार निन्दा हो तो सम्यग्दृष्टि को अपनी सामर्थ्य से उसे दूर करना चाहिए और इस प्रकार जैनमार्ग का रक्षण करना चाहिए। यदि धर्मात्मा पुरुष ऐसा न करेंगे तो लोकजन निन्दा के भय से इस सद्धर्म से विमुख हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में धर्म का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy