SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकधर्मप्रदीप और अपने पराजय से उत्पन्न दुःख के कारण यह भी संभव है कि उसे भी आत्मघात कर लेना पड़े। यह वाद विवाद वैर-विरोध का कारण हो जाता है और इससे उभयवादी परस्पर एक दूसरे के भी प्राणघातक हो जाते हैं। उभय वादियों का पक्ष लेनेवाले इतर मनुष्य भी कलह के बढ़ानेवाले हो जाते हैं और उनमें भी कषायातिरेक बढ़ जाने से एक महान् हिंसा का जन्म होता है। इसलिए श्रावकको कभी भी ऐसे वाद विवाद को जिसका आधार केवल कुबुद्धि हो अपने हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए। इस कुबुद्धि का परिणाम यह भी निकलता है कि वादी या प्रतिवादी असत्पक्ष के पोषण के द्वारा सन्मार्ग से स्वयं विमुख हो जाता है और यदि असद्मार्ग की पुष्टि करके स्वाभिमान की रक्षा कर भी ली तो भी उसका अन्य उपस्थित जनता पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि जनता तत्त्व समझती है तो जीते हुए वादी या प्रतिवादी को कट्टर धूर्त समझेगी और यदिजनता तत्त्व नहीं समझती तो वह सम्यग्मार्ग से अर्थात् आत्महित के मार्ग से दूर होकर अपना अकल्याण कर सकती है और वह पाप उस व्यक्ति के ऊपर होगा जो असत्पक्ष का पोषण कर उसे अहित मार्ग की तरफ प्रेरित करता है। किसी भी दृष्टिकोण से इस प्रकार की कुबुद्धि पूर्वक किया हुआ वाद विवाद सराहनीय नहीं है, इसलिए इसे महान् हिंसा का कारण जानकर त्याग देना चाहिए तथा विवेक पूर्वक पूर्वोक्त सम्पूर्ण विधि को इस पद्धति से स्वीकार करना चाहिये कि जिससे पारस्परिक वैर विरोध को स्थान न मिले और अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति ऐसी हो जो हमारे लिए या दूसरों के लिए शान्ति उत्पन्न करनेवाली हो। कलहात्मक चित्तवृत्ति इस लोक और परलोक दोनों में अशान्ति पैदा कर हमें कषायवान् बना देती है जिससे भव-भव में भ्रमण करना पड़ता है व कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए श्रावक को अपने हित की कामना से विवेकपूर्ण कार्य करना चाहिए।।१५।। इस प्रकार आचार्य श्रीकुन्थुसागरविरचितश्रावकधर्मप्रदीप व पण्डित जगन्मोहनलाल सिद्धान्तशास्त्रीकृत प्रभा नामक व्याख्या में प्रथम अध्याय समाप्त हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy