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________________ पाक्षिकाचार की इच्छा से तत्व का वर्णन मिथ्यातत्त्व के खण्डन पूर्वक परहित कामना से किया जाय तो वह वादविवाद नहीं बल्कि उसे तत्त्व - निरूपण कहते हैं। तत्त्व का निरूपण और अतत्त्व का निवारण तत्त्वदर्शी वीतरागी समदृष्टि साधु को भी करना आवश्यक होता है। वे कुपथगामी जीवों के सुपथपर लगाने की इच्छा से ऐसा करना अपना श्रेष्ठ कार्य मानते हैं। कभी-कभी वस्तुतत्त्व को सर्वसाधारण में प्रकाश करने, सद्धर्म की प्रभावना करने और अधर्म के प्रभाव और प्रसार को रोकने के लिए मिथ्याबुद्धि वालों के साथ उनके मिथ्यावाद की पराजय और सम्यग्वाद की विजय करने के लिए वादविवाद भी उन समदृष्टि साधुओं को करना पड़ता है। तथापि वह दोषाधायक नहीं है; क्योंकि वह वादविवाद उसके आधारभूत मिथ्यावादों का निराकरण कर लोगों को सम्यग्वाद पर चलाने के लिए किया गया है। इसमें यदि कोई प्रेरणात्मक शक्ति है तो वह है मुनि के अन्तरंग में सर्वहित कामना। वे चाहते हैं कि लोग अधर्म का मार्ग छोड़ आत्महितकारी मार्ग का आश्रय लेवें। इस प्रकार की सुबुद्धि के द्वारा किया गया वादविवाद प्राणघातक नहीं होता, इसका निषेध नहीं है। गृहस्थ भी ऐसी कामना से यदि वादविवाद करे तो हानि नहीं, किन्तु इस प्रसंग पर श्री आचार्य ने जो वादविवाद परस्पर न करने का उपदेश दिया है उसका सारांश यह है कि कुबुद्धि पूर्वक किया हुआ विवाद जीवित ही प्राणघातक हो जाता है, वह नहीं करना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि अभिमान के वश तत्त्व अतत्त्व की चिन्ता न करते हुए केवल पर के पराजय और अपने विजय की इच्छा से वादविवाद करना पर के लिए प्राणपीड़ाकारक होने से हेय रूप है। ३७ जिनका उद्देश्य केवल दूसरों का मान खण्डन ही है वे इस बात को भी नहीं देखते हैं कि हम सत्पक्ष पर हैं या असत्पक्ष पर, यदि प्रतिवादी सत्यपक्ष पर भी हो तो वादी असत्पक्ष की भी पुष्टि करके प्रतिवादी को नीचा दिखाना चाहता है और अपने पक्ष को सत्य सिद्ध करके अपने अहंकार की पुष्टि करता है। ऐसा करना पाप है, असत्यपोषक; अभिमानवर्द्धक और परप्राणपीड़क होने से यह त्याज्य है। अपने हित की इच्छा करनेवाले गृहस्थ को इस मिथ्या विवाद से दूर रहना चाहिए। यह बात नहीं है कि इससे पर प्राणघात ही हो बल्कि स्वघात भी हो सकता है। वादी जब केवल स्वाभिमान के पुष्ट करने के लिए प्रतिवादी के सत्पक्ष का भी खण्डन करना चाहता है तो यह नितान्त सम्भव है कि प्रतिवादी की अपेक्षा वादी ही इस वाद-विवाद में हेठी खा जाय अर्थात् पराजित हो जाय। यह बात वादी के लिए भी दुःखदायक होगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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