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________________ प्रकाशकीय (तृतीय संस्करण) जैनधर्म सभी समस्याओं का मूल ममत्व या मोह को मानता है और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए त्याग के अभ्यास पर जोर देता है। जैन-श्रावकों में दैनन्दिन अभ्यास के रूप में अनेक प्रकार के त्यागों का प्रचलन हैं वह मात्र रूदिगत नहीं, वरन् साधनापद्धति का अनिवार्य अंग है। साधना दो प्रकार की है। पहली संवर (संयम) रूप है। इसके अन्तर्गत जीवन को इस प्रकार अनुशासित करना जिससे नये दोष न आने पाये। दूसरा निर्जरा रूप है, जिसका अर्थ है संचित दुर्बलताओं, दोषों को दूर करने का उपाय। साधक के लिए दोनों प्रकार का अभ्यास आवश्यक है। एक ओर उसे अपना जीवन इतना संयत और अनुशासित बनाना चाहिए कि कोई दुर्बलता या असावधानी उसके पास न आने पाये। दूसरी ओर ऐसे अभ्यास में प्रवृत्त होते रहना चाहिए जिससे वैराग्य की भावना तथा आत्म-परिणामों में उत्तरोत्तर दृढ़ता एवं शुद्धता होती जाये। 'श्रावकधर्मप्रदीप' श्रावकाचार से सम्बन्धित ऐसी ही महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसमें आत्मा के उत्तरोत्तर विकास के लिए शास्त्रों में उल्लिखित ग्यारह प्रतिमाओं का साङ्गोपाङ्ग विवेचन है। प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार पूज्यपं०जगन्मोहनलालजी शास्त्री को अपने पूज्य पिता स्व०बाबा गोकुलप्रसादजी वर्णी से जो धार्मिक संस्कार विरासत में प्राप्त हुए उनमें क्रमशः दृढ़ता आती गई और ७० वर्षों की दीर्घावधि में उन्होंने व्रती-जीवन का सफल निर्वाह किया। इस अनूठी दृढ़ता व साधना का प्रमुख कारण साधुओं का सानिध्य भी रहा और इस प्रकार उनकी जीवन-शैली मात्र विद्वत्तापूर्ण ही नहीं हुई, वरन् व्रताचरण में वे जीवन्त आदर्श पुरुष सिद्ध हुए। उनकी समाधि-साधना की उपलब्धि भावी पीढ़ी के लिए प्रकाशस्तम्भ स्वरूप है। संस्थान द्वारा श्रावकधर्म प्रदीप के द्वितीय संस्करण की समाप्ति विषयक सूचना पाकर तत्काल उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री अमरचन्द्रजी जैन ने तृतीय संस्करण के पुनर्मुद्रण हेतु समुचित राशि के प्रबन्धन में प्रवृत्त हुए और स०सि०कन्हैयालाल रतन चन्द जैन शिक्षा ट्रस्ट को प्रेरित किया। प्रसनता की बात है कि सवाई सिघंई धन्यकुमार जी जैन कटनी, जो पूज्य वर्णीजी के अनन्य भक्त, संस्थान के संस्थापक सहयोगी और अध्यक्ष रहे हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड की जैन समाज के चतुर्मुखी विकास के लिए अपेक्षित मार्गदर्शन किया है, उनके पूर्वजों द्वारा स्थापित विभिन्न ट्रस्ट आज भी उनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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