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________________ श्रावकधर्मप्रदीप के साथ चलनेवाले वैर की कथा है। यदि वह अनेक जीवों से हो तो फिर उस दुःख परम्परा का कहना ही क्या? इसका सारांश यह हुआ कि जब हिंसा स्वयं विनाशशीलता के कारण अमर रहने की इच्छा रखने वाले प्राणिमात्र के लिए दुःखरूप है तो उसके विरुद्ध तत्परित्यागरूप अहिंसा अवश्य ही सुखदायिनी होगी। यह अहिंसा यदि एक प्राणी के साथ व्यवहार में लाई जावे तो वह जैसे उसमें बन्धुत्व की भावना उत्पन्न कर देती है उसी तरह यदि प्राणिमात्र के प्रति प्रयोग में लायी जावे तो विश्व के सभी प्राणियों में बन्धुत्व की भावना जागृत कर सकती है। यही कारण है कि नीतिकारों ने उदार चरित महापुरुषों के लिए सारे विश्व को ही कुटुम्ब मान लिया है। हमने यदि विश्व के प्राणी मात्र में बन्धुत्व भावना उत्पन्न कर ली है तो हम उनके प्रति हिंसक नहीं होंगे, साथ ही विश्व के वे सब प्राणी भी हमारे प्रति अहिंसक रहेंगे। इस तरह हम लोक के रक्षक और लोक हमारा रक्षक बन जाते हैं। यदि विश्व के समस्त प्राणी ऐसा ही विचार कर अहिंसा धर्म स्वीकार कर लें तो यह निःसन्देह है कि विश्व में युद्ध और कलह की समाप्ति हो जावे। इससे यह बात सप्रमाण सिद्ध है कि अहिंसा ही विश्व की रक्षा करने में समर्थ है। इसलिए वही प्राणिमात्र के लिए श्रेष्ठतम धर्म है। मनुष्य को अपना कर्तव्य पथ दिखाने के लिए नाना धर्मों की सृष्टि मनुष्य समाज के ही अनेक व्यक्तियों ने कर ली है। सबका यह दावा है कि मेरा चलाया हुआ धर्म ही प्राणी को सुपथ पर ले जावेगा और उससे भिन्न धर्म कुपथ पर। इस प्रकार के भिन्न-भिन्न पक्ष केवल पक्षमात्र हैं। उनसे धर्म के नामपर पारस्परिक कलह बढ़ने के सिवाय कोई लाभ नहीं, यह भी एक अर्थ श्लोक में निहित है। अतएव सर्व प्राणियों के लिए अनुभूत और परीक्षित श्रेष्ठ धर्म अहिंसा ही है। अतएव उसकी श्रेष्ठता निर्विवाद है। पाक्षिक श्रावक के ऐसे विचार रहते है कि वह लोक कल्याणकारी धर्म मेरे हृदय से कभी दूर न होवे । वह तब तक मेरे मन में निवास करे जब तक संसार में चन्द्रमा स्थित है अर्थात् जिस तरह द्रव्यदृष्टि से चन्द्रमा कभी नाश को प्राप्त नहीं होगा उसी तरह यह अहिंसा परम धर्म भी मेरे मन से कभी दूर न होवे । । ३ - ४ ।। प्रश्न - सद्गुरोर्विषये कीदृग्भावोऽस्ति पाक्षिकस्य वा ? प्रशस्तधर्मोपदेशक एव सद्गुरुः तस्य सम्बन्धे पाक्षिकस्य कीदृग्भावो भवति इति पृच्छति शिष्यस्तदा तं समादधात्याचार्यः ४ सच्चा गुरु, जो कल्याणकारक मार्ग को ठीक तरह से बता सके, कौन है इस विषय में, पाक्षिक क्या समझता है ? ऐसे शिष्य के प्रश्न पर आचार्य उत्तर देते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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