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________________ २९० श्रावकधर्मप्रदीप हो जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐसी पराधीनता स्वीकार करने से तो स्वाधीन रहना अच्छा है। यथार्थ में भोजन की आधीनता ही पराधीनता है। रागादि की प्रबलता के कारण ही हम आरंभ का त्याग नहीं कर पाते। पर को पर और स्व को स्व जानकर भी हम स्वेच्छा से मोह के कारण व अपनी कायरता के कारण पर पदार्थ का आश्रय पकड़ते थे। अब मोह का बहुत अंशों में त्याग हुआ, जिसकी यह परीक्षा है कि वह स्वेच्छया अपने लिए आरंभ नहीं करता। स्वेच्छया आरंभ करने वाले पुरुष अपनी रसनादि इन्द्रियों के भी दास हैं। वे अपनी इच्छाओं को रोकने में समर्थ नहीं, अतः मनमाने व्यञ्जनादि भी बनाकर कभी खा लेते हैं। इस प्रतिमावाला पर घर या स्वगृह पर जब कोई आमंत्रित कर ले जाय और जो कुछ आहार दे दे उसे ही सन्तोष पूर्वक उदरपूर्त्यर्थ ग्रहण कर लेता है। चाहे वह नीरस हो, बेस्वाद हो, प्रकृति के अनुकूल हो या न हो, उसके निमित्त से चित्त में कोई संकल्प विकल्प नहीं लाता। इस तरह से शरीर तथा भोगेच्छा से ममत्व का त्याग इस प्रतिमा में प्राप्त हो जाता है जो कि मुनिपद के लिए अत्यावश्यक है। सप्तम प्रतिमा से ही मुनिपद योग्य व्रतों का प्रारंभिक अभ्यास प्रारम्भ हो गया है जो क्रमशः वृद्धि के हेतु अष्टमी प्रतिमा में इस रूप में आया है। यह व्रती प्राप्त अर्थ में न्यूनता करने व कौटुम्बिक मोह के छोड़ने के अर्थ अपना गृहाश्रम का भार अपने पुत्रादिकों को सौंप देता है। स्वयं व्यापार, खेती और शिल्प आदि क्षत्रियवृत्ति तथा अन्य सभी प्रकार की लेखनादि कार्य द्वारा आजीविका का त्याग कर देता है। अर्थलिप्सा का यहाँ अभाव हुआ। साथ ही अन्नादिका कूटना, पीसना, पानी भरना, आग जलाना, हवा करना, वनस्पति छेदना, भूमि खोदना, घर बनाना, उसकी स्वच्छता करना, रंग करना, सफेदी करना, झारना-बुहारना, वस्त्रादिकों में साबुन आदि लगाना,शरीर पर साबुन आदि द्रव्यों का प्रयोग करना, बाग बगीचा लगवाना, गर्मी लगने पर स्वयं पंखा चलाना और बिजली के पंखों का प्रयोग करना आदि आरंभों का त्याग कर देता है। यह अल्प सादे स्वच्छ वस्त्रों का उपयोग करता है। प्रासुक जल से अपने वस्त्र स्वयं निचोड़ लेता है। अपने भोजन के वर्तन यत्नाचार पूर्वक स्वयं स्वच्छ कर प्रासुक जल से धो लेता है। यदि दूसरा व्यक्ति भी उसकी उक्त सेवाओं को करना चाहे तो निषेध नहीं। तथापि यह ध्यान रखता है कि असंयमी पुरुष मेरे लिए उक्त कार्य अप्रासुक जलादि से व सोड़ा साबुन आदि अन्य द्रव्यों के उपयोग से तो नहीं करते। यदि करते हों तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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