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________________ नैष्ठिकाचार पर स्वयं जल निकालने या प्रासुक करने का आरंभ नहीं करेगा | कारित अनुमोदन का यह त्यागी नहीं है - अतः अपने हाथ से किसी को प्रेरणा कर आहार की अपनी व्यवस्था को बना सकता है अथवा निमंत्रण दे तो उसे स्वीकार कर लेता है। इस प्रतिमा की आराधना में उसे विशेष कष्ट का अनुभव होगा तथापि वह साहसी पुरुष स्वपौरुष से ही उस पर विजयी होगा। उसने अपनी पूर्व प्रतिमाओं में भोगोपभोगों को कृश करके, पर्व में सर्वारम्भ का त्यागकर क्षुधा, तृषा तथा लोभादि पर विजय प्राप्त करके, नित्य समता भाव का अभ्यास करके, ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर तथा कुटुंबादि संबंधी मोह और उनके सहारे का त्याग करके अपने को इस योग्य बना लिया है कि वह शरीर में भी इस प्रकार निस्पृह बना रहता है। २८९ इस प्रतिमा का पालन सरल नहीं है। अपने पास धन के रहते हुए, सर्वसाधनों के रहते हुए स्वयं पाकादि करने की सामर्थ्य रहते हुए भी वह स्वयं कोई भोजनादि की व्यवस्था नहीं करता है। भोजन न करके क्षुधादि पर विजय प्राप्त करना, चित्त को म्लान न करना, समता-परिणामों की वृद्धि करना व लौकिक कार्यों पर विजय प्राप्ति का महोत्सव मानना इस प्रतिमा वाले महापुरुष की विशेषता है। अष्टम प्रतिमावाला या तो गृहत्याग कर देता है और यदि घर में रहता भी है तो पर-घर की तरह। वह उसे अपना घर और अपने कुटुंब को अपना कुटुंब मानकर वहाँ नहीं रहता। हाँ, कुटुंब के प्रति किंचिन्मोह के कारण वहाँ ठहरा है। वह भी अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु नहीं, किन्तु अन्तरंग में जो परिग्रह और कुटुबंजनों के प्रति रागांश है उसके कारण रह रहा है। अपने घर में भी अपने लिए एकान्त स्थल चुनकर और वहाँ ही रहकर स्वाध्याय और सामायिक में अपना समय व्यतीत करता है। अथवा उक्त उद्देश्य को सामने रखकर चैत्यालय या धर्मशाला आदि निरुपद्रव स्थान का ग्रहण करता है। प्रासुक जल प्राप्त होने पर यद्वा तद्वा शुद्धि मात्र के लिए स्नान करता है। नित्य देववन्दना, स्तुति, सामायिक, जप और स्वाध्याय पूर्वक धर्मध्यान से समय व्यतीत करता है। आरंभ के अभाव में प्रासुक द्रव्य द्वारा द्रव्य पूजन और प्रासुक द्रव्य के अभाव में केवल भाव पूजन करता है। भोजन के समय यदि कोई बुलाने आवे अथवा प्रभात काल के समय आमंत्रित करे तो स्वीकार कर लेता है। पर स्वयं किसी से भोजन हेतु प्रार्थना नहीं करता। इस प्रतिमा से भोजनादि की व्यवस्था बहुत कुछ अंशों में श्रावकों के आधीन हो जाती है। स्वाधीन व्यवस्था भंग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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