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नैष्ठिकाचार
२६३ साधुजन सचित्त द्रव्य ग्रहण नहीं करते। वे यह देखने नहीं आते कि आपने अपने विवेक से कार्य किया है या नहीं। वे अपके वचन पर भरोसा करके ही आहार को विशुद्ध मानकर आहारादि द्रव्य में से लेते हैं। यदि गृहस्थ उसमें भूल करे तो उसे अतिचारादि दोष है, साधु के लिए नहीं। साधु को यदि प्रतीत हो जाय तो साधु भी उस दोष के परिमार्जन के लिए प्रायश्चित्त लेते हैं। अतः विवेकी श्रावक को इन दोषों से बचना चाहिए। सचित्त शब्द भी उपलक्षण है। ये दोनों अतिचार केवल सचित्त द्रव्य के निमित्त से ही नहीं हैं किन्तु सचित्त जैसे अन्य त्याज्य पदार्थों के संपर्क से सहित पदार्थों का दान भी उक्त अतिचारों में सम्मिलित होगा।
सचित्त शब्द की व्याख्या में इस समय कुछ विवाद खड़ा है। उसकी चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा, अतः विचार किया जाता है। वैसे तो सचित्त का अर्थ सजीव है। त्रसादि जीवसहित पदार्थ भी सचित्त शब्द द्वारा कहे जा सकते हैं पर ऐसे सचित्त से यहाँ तात्पर्य नहीं है। ऐसे सचित्त का त्याग तो श्रावक के पाक्षिक अवस्था में ही हो चुका है। यहाँ सचित्त से तात्पर्य एकेन्द्रिय पंच स्थावर जीव सहित पदार्थों को सचित्त मानने
से है।
वृक्ष में वनस्पतिकाय एकेन्द्रिय जीव है। यतः उसमें एक ही जीव है अतः उससे टूटे हुए पत्र या फलफूल आदि चाहे वे कच्चे हों या पक्के हों अचित्त ही है ऐसी मान्यता इस काल में उत्पन्न हुई है और यह मान्यता कुछ विद्वानों द्वारा प्राचीन एवं शास्त्रोक्त मानी जाने लगी है। यहाँ यह विचारणीय है कि क्या यह मान्यता आगमानुकूल है या नहीं। हमारी (टीकाकार) की समझसे सचित्त का उक्तार्थ सही नहीं है। वनस्पति वृक्षादि यद्यपि जीव एकेन्द्रिय से अधिष्ठित होते हैं तथापि उसके प्रत्येक पत्र पुष्प फलादि में पृथक-पृथक एकेन्द्रिय जीव होते हैं। वे वृक्ष में ही लगते हैं, इससे उनका पृथक् अस्तित्व नहीं है, वे वृक्ष के अंग हैं, जैसे हमारे हाथ पैर वगैरह ऐसी मान्यता सही नहीं है। ___ जब एकेन्द्रिय जीव के अंगोपांग नामकर्म का ही उदय नहीं है तब वृक्ष के पत्रफलादिकों को मनुष्य के हाथ-पैर की तरह एक जीव के शरीर के अंग मानना आगमविरूद्ध है। दूसरी बात यह है कि जहाँ सचित्त निक्षेप नामक इस अतिचार का वर्णन है वहाँ उसकी व्याख्या में पूज्यपादस्वामी ने या राजवार्तिक में भगवान् अकलंकदेव ने “सचित्ते पद्मपत्रादौ” ऐसा अर्थ किया है अर्थात् सचित्त कमलप्रत्र आदि में रखा हुआ आहार देना अथवा उससे ढका हुआ द्रव्य देना सचित्तनिक्षेप या सचित्तपिधान नामक
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