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नैष्ठिकाचार
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इस प्रकार करनी चाहिए कि सचित्तादित्याग किए हुए भोगोपभोग रूप पदार्थों का प्रमाद से ग्रहण सचित्ताहार है। जैसे यदि किसी द्वितीय प्रतिमाधारी ने सचित्त वनस्पति आदि का भोगोपभोग प्रमाण के रूप में नियत काल तक अष्टमी चतुर्दशी अथवा आष्टाह्निक आदि पर्यों में त्याग कर रखा है। अथवा स्वेच्छा से यमरूप (आजीवन) उसका त्याग किया है। तब ऐसी अवस्था में यदि प्रमाद से सचित्त का आहार में, स्नानादि में मर्यादा काल में ग्रहण हो जाय तो वह सचित्ताहार नामक अतिचार होगा। इसी प्रकार यदि किसी भोगोपभोगत्याग व्रती ने अपने इस व्रत में सचित्त त्याग करके घृत मिष्ट आदि किसी रस विशेष का नियत या अनियत समय के लिए त्याग किया है। अब यदि प्रमाद या भूल से मर्यादा के भीतर त्याग की अवधि पूरी न होने पर भी उक्त घृत और मिष्ट रस का सेवन करने में आ जाय तो वह सचित्ताहारादि के स्थान में घृताहार घृतसम्बन्धाहार
और घृतमिश्राहार ऐसे अतिचार के रूप में बोला जायगा। अथवा मिष्टाहार, मिष्टसम्बन्धाहार और मिष्टमिश्राहार कहा जायगा। तात्पर्य यह है कि सचित्ताहार सचित्तसंबंधाहार से तात्पर्य केवल सचित्त से ही नहीं है। सचित्तादिभोगत्यागाहार और सचित्तादिभोगसंबंधिताहार से है। आदि शब्द से जो भी भोग या उपभोग इस व्रत में नियत या अनियत समय के लिए त्याग किए हों उनका मर्यादा काल के भीतर प्रमाद से ग्रहण करना उक्त व्रती के लिए उक्त व्रत का अतिचार होगा ऐसी व्याख्या करना सुसंगत है। ___उपभोग के संबंध में भी ऐसी ही व्याख्या करनी चाहिए। सचित्त उपभोग का यदि नियत या अनियत समय के लिए त्याग किया है तो उसे उक्त मर्यादा काल तक उसका निर्वाह करना चाहिए। यदि वह प्रमादतः मर्यादाकाल के भीतर उन सचित्त पदार्थों का उपभोग करे। जैसे वृक्षों की छाल आदि सचित्त वस्त्रों का उपभोग, सचित्त पुष्पमाला का उपभोग, सचित्त मार्ग पर गमनागमन, हरी घास पर बैठना व सोना आदि तो ये सचित्तोपभोगत्यागवत के अतिचार होंगे। यहाँ भी ‘सचित्त' शब्द उपलक्षण है। सचित्त के स्थान में दूसरे प्रकार से भी यदि उपभोग का त्याग किया है तब मर्यादाकाल में उसका सेवन भी अतिचार होगा। जैसे-यदि किसी भोगोपभोग व्रत में यह नियम किया है कि मैं इतने समय तक सुवर्ण के आभूषण नहीं पहिनूँगा अथवा रंगीन वस्त्रों का उपयोग न करूँगा। ऐसी स्थिति में यदि वह भूल या प्रमाद से उनका उपयोग कर ले तो सुवर्णाहार, चित्रवस्त्राहार इन नामों से उक्त अतिचार का उल्लेख होगा।
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