SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैष्ठिकाचार विषय और कषाय ये दोनों ही संसार में दुःखप्रद हैं। इनके वश प्राणी स्वात्मस्वरूप की भूमिका को त्याग कर अन्य भोग और उपभोग के पदार्थों के ग्रहण की ओर दौडता है तथा उनके संयोग की तरह उनका वियोग न हो इसके लिए प्रयत्नशील रहता है। स्वेष्ट आत्मीक ज्ञान, दर्शन, अनन्त सुख और बल से विमुख हो परपदार्थों में ही इष्ट कल्पना करता तथा उन्हें ही इष्ट मानकर निजस्वरूप को भूला रहता है। जिन्हें इष्ट माना है उनके ग्रहण और संग्रह में यदि कोई बाधक कारण है तो उसे अनिष्ट समझ कर दूर करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार बाह्य पदार्थों में जो इष्टानिष्ट कल्पना प्राणी को उत्पन्न हो गई है उसके कारण इष्ट के संयोग के लिए तथ अनिष्ट के निराकरण करने के लिए दिनरात चिन्तन करता है। जिससे इसके इष्टसंयोगज और अनिष्टवियोगज आर्तध्यान होता है जो इसे निरन्तर कर्मवंधन के चक्र में बाँधे रहता है। इष्ट संयोग के अभाव में अथवा अनिष्ट पदार्थ के संयोग में दुःख उत्पन्न होता है। उस पीड़ा को दूर करने के लिए 'पीड़ाचिन्तन' आर्तध्यान होता है। साथ ही भविष्य में यह प्रयत्न करूँ कि मुझे इष्ट संयोग अधिक से अधिक हो, ऐसे भावी भोगों की चिन्ता में मग्न होने से 'निदान' नामक चौथा आर्तध्यान होता है। इन चारों आर्तध्यानों के कारण हिंसा, असत्य, च और परिग्रह की दुर्भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इन पापों को इष्ट संयोग का कारण मान इनके करने में आनन्दित होता है, जिसे रौद्रध्यान कहते हैं। इस प्रकार भोगोपभोग के हेतु आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का अवलम्बन करनेवाला मोही प्राणी संसार गर्त्त में गिरता है। इस स्थिति से बचाने के लिए यह भोगोपभोगप्रमाणव्रत समर्थ है। इस व्रत के स्वीकार करने से स्थिति बिल्कुल भिन्न हो जाती है। इस व्रत द्वारा कुछ भोगोपभोगों का त्याग हो जाता है। यदि उनका त्याग आजीवन के लिए होता है तो इसे 'यम' कहते हैं और जिन भोगोंपभोगों का नियत समय के लिए त्याग होता है, उसे ‘'नियम' कहते हैं। दोनों प्रकार के त्याग हमारी बहिर्मुखी प्रवृत्ति को दूर कर हमें अन्तर्मुख करते हैं। इस व्रत में जिन विषयों का त्याग नहीं हो सका है उन विषयों को व्रती हेय ही मानता है और उनके त्याग का भी प्रयत्न करता है। वह सदा यह सोचा करता है कि इन सबके सम्पूर्ण त्याग का भी अवसर यदि मुझे प्राप्त हो जाय तो मेरा बड़ा सौभाग्य होगा। २४५ जो भोग या उपभोग हिंसावर्द्धक हैं, जिनमें त्रसघात होता है या बहुघात होता है अथवा जो मदोत्पादक होने से आत्म-विस्मृति के कारण हैं, रोगोत्पादक हैं, अथवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy