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________________ २४४ श्रावकधर्मप्रदीप प्रयोग गायक करेगा तथा दूसरी बार पुनः उसी प्रकार की चेष्टा नर्तक करेगा। वे ही शब्द अथवा वहीं हाव भाव वापिस लौटाया नहीं जा सकता। केवल पुनरुक्ति हो सकती है। जो पदार्थ एक बार काम में आने पर भी स्थिर रहते हैं तथ जिन्हें दूसरी बार भी काम में लाया जा सकता है उन्हें 'उपभोग' संज्ञा प्राप्त है। जैसे वस्त्र, शय्या, गृह, लाठी, बाग-बगीचे, टेबिल, कुर्सी, खेत, सड़क, बोतल, चित्र और दर्पण आदि। इन पदार्थों के कुछ काल तक स्थिर रहने से ये अनेक बार उपभोग में लाए जा सकते हैं, अतः उपभोग कहलाते हैं। यदि विषय ग्रहण करने वाली इन्द्रियों द्वारा विभाजन करें तो रसना और श्रोत्र द्वारा गृहीत विषय भोग की श्रेणी में आते हैं तथा स्पर्शन घ्राण और चक्षु द्वारा गृहीत पदार्थ दोनों प्रकार के पाए जाते हैं। उदाहरण इस प्रकार समझना चाहिए कि शरीर पर जो तेल भोजन और उपटन आदि पदार्थ उपयोग में आते हैं वे भोग हैं। शय्या और शीत वारणार्थ वस्त्र आदि पदार्थ स्पर्शन के विषय होते हुए भी अनेक बार उपयोग में आते हैं, अतः उपभोग हैं। नस्य या इतर आदि घ्राण के भोग हैं। एकबार काम में लेने के बाद वे नष्ट हो जाते हैं। पुष्पजो कई बार सूंघा जा सकता है वह उपभोग है। पुष्पमाला को कहीं कहीं भोग में परिगणित किया है वह इस व्यवहार की अपेक्षा किया है कि पुष्पमाला का उपयोग एकबार सूंघने या गले में डालने के बाद दूसरी बार या दूसरे व्यक्ति के लिए वह अयोग्य मानी गई है ऐसा लोक व्यवहार है। पर यदि व्यवहार के चलने के नियमों की ओर ध्यान न देकर एक ही पुष्पमाला का दिन में १० बार उपयोग करें या १० व्यक्ति उसका उपयोग करें तो कर सकते हैं। इस अपेक्षा उसकी उपभोग में भी गणना की जा सकती है। नेत्र के विषयभूत पदार्थ विभिन्न दृश्य स्थिर भी रहते है अतः उपभोग रूप भी हैं, और बिजली की चमक तथा सिनेमा के परिवर्तनशील चित्र आदि भोग रूप भी हैं। वे एक बार दिखाई देते ही छाया रूप होने से समय-समय में परिवर्तित होते जाते हैं। अन्य समय में अन्य चित्र की अथवा उसी चित्र की दूसरी छाया के दृश्य दिखाई देते हैं। इस प्रकार भोगोपभोग का स्वरूप आचार्यों ने बताया है। इन पदार्थों के उपयोग से केवल विषय और कषाय ही परिपुष्ट होते हैं अथवा कषायोद्रेक से ही हम इन पदार्थों का उपयोग करते हैं, इनका संग्रह करते हैं और इनमें ममत्व भाव करते हैं। यदि हम अपनी विषयेच्छा को कम कर सकते हैं तो हमें इनका जितना कम से कम ग्रहण हो उतना इनका कम से कम उपयोग करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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