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________________ २२२ श्रावकधर्मप्रदीप धन्य-धान्यादि दस प्रकार का परिग्रह है। परिग्रहपरिमाण व्रत में उनका प्रमाण इस प्रकार किया था कि मैं अपने जीवन में इतने मकान रखूगा, इतना सोना रखुंगा इत्यादि प्रमाण द्वारा गृहीत सम्पत्ति में ही अपने जीवन का निर्वाह करता था। यदि कदाचित् लोभवश या परिस्थितिवश गृहस्थ को ऐसा प्रसंग आवे कि उसकी इच्छा अपने परिग्रह की मर्यादा के उल्लंघन करने की हो जाय तो उसे अपने पर नियन्त्रण करना चाहिए और कदाचित् भी अपनी मर्यादा का भंग प्राणान्त होने पर भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार दृढ़ता से व्रत पालन करनेवाला मनुष्य स्वर्ग गति में सुखपूर्वक जीवन यापन करता है। अन्यथा इस लोक में अपवादादि तथा परलोक में नरकादि गति का उसे पात्र बनना पड़ता है। अतः अतिचार पिशाचों से सदा व्रत का रक्षण करना चाहिए। कैसी भी अवस्था में अपने व्रत में अतिचार नहीं लगना चाहिए। अतिचार धीरे-धीरे व्रत को समाप्त कर देते हैं और तब व्रती अव्रत की भूमिका में आ जाता है। एक बार व्रत से छूटा प्राणी दुबारा व्रत की भूमिका में बड़ी कठिनता से आरोहण करता है और हतोत्साह हो जाता है। अतः व्रतों में सदा उत्साह रहे इसके लिए यह आवश्यक है कि अतिचारों से सर्वथा व्रतों को बचाये १७७। प्रश्न:-दिग्वतलक्षणं किं स्यात्तदतिचाराश्च के बद। दिग्व्रत का क्या लक्षण है और उसके अतिचार कौन हैं? कृपाकर कहें (वसन्ततिलका) पापस्य दुःखजनकस्य निरोधनार्थं कृत्वा प्रसिद्धनगरादिदिशः प्रमाणम् । द्रव्यार्जनाय न हि गच्छति तद्वहिर्यः स्याहिग्व्रतं ह्यनुपमं सुखदञ्च तस्य।।१७८।। पापस्येत्यादिः- पञ्चाणुव्रतनिर्देशानन्तरं तव्रतपरिरक्षणार्थं तत्र गुणवृद्ध्यर्थञ्च दिग्विरत्यादीनि गुणव्रतानि सन्ति। तत्र दिव्रतस्य स्वरूपमिदम्-दुःखोत्पादकस्य दुःखजनकस्य पापस्य हिंसादिपापपञ्चकस्य समुत्पत्तिर्यतो न स्यात् एवं विचार्य दशस्वपि दिक्षु गमनागमनयोमर्यादा कार्या। यस्यां दिशि यावति क्षेत्रे गमनेन गृहस्थस्य सामान्यतया निर्वाहः स्यात् तत्पर्यन्तमेव गमनस्य नियमे कृते तबहिर्न गन्तव्यम् । अस्य व्रतस्य एष एव विधिर्यत् किल अस्यां दिशि अमुकनगरपर्यन्तम् द्वितीयस्यां दिशिप्रसिद्धपर्वतपर्यन्तं अथवा क्रोशादिप्रमाणेन गमनागमनस्य मे मर्यादा व्यापारादिकार्येणापि सीम्नः बहिर्न स्याद् गमनं मे। एवं कृते श्रावकस्य एकदेशरूपाण्यपि व्रतानि सीम्नो बहिःप्रदेशेषु महाव्रतानीव भवन्ति।१७८। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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