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________________ नैष्ठिकाचार है। संसारज्वाला से दग्ध प्राणी आशा से जीवित है। निराशा से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। किन्तु मुक्ति मार्ग में निराशा से ही जीवित रहते हैं और आशा से मृत्यु को प्राप्त होते हैं। आशा रूपी गढ़ा प्रत्येक प्राणी के हृदय में अथाह है, उसका अन्त नहीं है। उसमें कितना भी डालो उसकी पूर्ति नहीं होती । सन्तोषरूपी अमृत की एक बूंद से ही वह पूर्ण भर जाता है और आत्मा में शीतल जल, चन्द्रकिरण, चन्दनानुलेपन, हिमस्पर्श और शीतल छाया की प्राप्ति के सदृश शान्ति प्राप्त हो जाती है, अतः गृहीत परिग्रह में न्यूनता करना कल्याणकारी है। २२१ अपनी परिमित तृष्णा पूर्त्यर्थ अथवा गृह की सामान्य आवश्यकता की पूर्ति के हेतु व्यापारादि से धनार्जन कर शेष समय का देवपूजन, स्वाध्याय तथा अध्यात्मचिन्ता आदि के द्वारा सदुपयोग करना चाहिए। साथ ही अपने अर्जित धन का उपयोग केवल स्वविषयोपभोग में नहीं करना चाहिए बल्कि जिनपूजन, मुनियों को आहारादिदान, स्वाध्यायशाला, पुस्तकदान, विद्यादान, शिक्षार्थियों आदि को आहार, औषधि, शिक्षासाधनों का प्रदान करना, निर्धन साधर्मी भाइयों को यथायोग्य सहायता देकर उन्हें धर्म में दृढ़ रखना तथा धर्मोत्साह बढ़ाना आदि उत्तमोत्तम कार्यों में करना लौकिक दृष्टि से भी सुखदायक है और पारलौकिक लाभ के लिए भी वह हेतुभूत है। इसलिए तृष्णा दुःख को न्यून करने के लिए परिग्रहपरिमाणव्रत को स्वीकार करना श्रेष्ठतर कार्य है । १७५।१७६ । परिग्रहपरिमाणव्रतस्यातिचाराः (अनुष्टुप्) धनादीनां कृतस्यैव प्रमाणस्य बहि र्न च । गन्तव्यं तत्त्वतो भव्यैर्यतः स्यात् सौख्यदा गतिः ।। १७७।। धनादीनामित्यादिः– व्रतानां रक्षणं सदा कर्त्तव्यम् । तद्रक्षणाय व्रतातिचारान् दूरीकृत्य स्वकृतनियमेषु व्यवहारः कर्त्तव्यः । तत्प्रमाणं खलु धनादीनां परिग्रहाणां पूर्वं स्वीकृतं न तद्बहिर्गन्तव्यं प्राणान्तेऽपि। एवं कृत एव सौख्यदा गतिर्भवति । तदभावे तु नरकादिकुयोनिषु दुःखान्युत्पादयन्ति प्राणिनः ।।१७७ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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