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________________ नैष्ठिकाचार २१९ कामातुरता व्रतभङ्ग का प्रधान हेतु है। कामातुर अपना व्रत सदा सुरक्षित नहीं रख सकता। कामसन्ताप से संतप्त पुरुष को कर्तव्याकर्तव्य का बोध नहीं रहता। उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता। दृष्टि दूषित हो जाती है। मन सदा भटकता रहता है। अपने आपको वश में नहीं रख सकता। पागलों की तरह प्रलाप करता है। न कहने योग्य अयोग्य वचन बोलता है। कुचेष्टाएँ करता है। नीच संगति करता है। परस्त्रीसेवी में जितने दुर्गुण होते हैं वे सब कामातुर को प्राप्त होते हैं। कामातुरता से ही तो लोग परस्त्री गमन करते हैं। कामातुर के लिए स्त्रीमात्र में एक ही सम्बन्ध प्राप्त है और वह है भोगदृष्टि। माता, बहन, कन्या ये केवल कथन के लिए शब्दमात्र हैं। उन शब्दों में अन्तर्निहित पवित्र भावना का उसे दर्शन भी नहीं होता। कामातुरता सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ है, अतः स्वस्त्री सन्तोषव्रती को उक्त दोष को सर्प, विष, अग्नि, सिंह और शार्दूल आदि भयंकर जीवों से भी महान् भयंकर समझकर उससे सदा दूर रहना चाहिए। परविवाहकरण, इत्वरिकागमन और अनङ्गक्रीड़ा आदि समस्त दोष काम की तीव्र अभिवांछा से ही उत्पन्न होते हैं। व्रत के अतिचार दुर्जन की भाँति सदा पीड़ा और धोखा देनेवाले हैं। वे व्रत का नाश करते हैं और स्वयं अनेकानेक पापों को उत्पन्न करानेवाले हैं। स्वस्त्री व्रती को उत्तम सन्तान की प्राप्ति के हेतु अथवा शरीर में होनेवाले मदावेश को मिटाने के हेतु ही स्वस्त्रीगमन स्वीकार करना चाहिए। योग्य सन्तान से कुलवृद्धि होती है। योग्य सन्तान धर्म परम्परा को चलाने के लिए समर्थ होती है। इसलिए अन्तर्वर्ती कज्जल को सतत वमन करनेवाले और सदा प्रकाशमान अपने निज स्वरूप में स्थित रहनेवाले दीपक के समान स्वानन्दतुष्ट आत्मरसभोगी स्वदारसंतोषी को अपने अन्तर्वर्ती अतिचारों का परिहार कर अपने स्वरूप में रहना उचित है। तब ही वह निर्दोष व्रती रह सकता है।१७४। प्रश्नः- परिग्रहपरिमाणव्रतचि गुरो वद। हे गुरुदेव! परिग्रह परिमाण व्रत के क्या चिह्न हैं, कृपा कर कहें। ऐसा प्रश्न करने पर गुरु उपदेश करते हैं (अनुष्टुप्) धनादीनां यथाशक्ति प्रमाणं प्रविधाय यः । आशाग्निशमनार्थं तु करोति दानपूजनम् ।।१७५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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