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________________ श्रावकधर्मप्रदीप अनैतिक आचार वाले स्त्री-पुरुष मोक्षमार्ग के राही परम दिगम्बर जैन मुनियों को आहार आदि दान के विशेष अधिकारी नहीं माने गए। जिनके ब्रह्मचर्य का एकदेश व्रत है अर्थात् जो स्वदार संतोषी हैं अथवा जिन्हें पातिव्रत्य धर्म की अपेक्षा है वे ही स्त्री-पुरुष शास्त्रों में मुनिदान के विशेष अधिकारी माने गए हैं, अतः सबसे बड़ी हानि असदाचारियों को यह उठानी पड़ती है कि वे धर्म के आयतनों से भी वञ्चित हो धर्ममार्ग से पराङ्मुख होकर संसार गर्त को बढ़ाते हुए पथ-भ्रष्ट हो अपना विनाश स्वयं उपस्थित कर लेते हैं। अतः स्वप्न में भी पर-पुरुष या पर- स्त्री का जो सेवन नहीं करते वे विवेकी ब्रह्मचर्य के एकदेश का पालन कर व्रती संज्ञा को प्राप्त होते हैं । १७३ । परस्त्री त्याग अथवा स्वदारसंतोषव्रत के दोष २१८ (अनुष्टुप्) तीव्रकामाभिलाषाद्यतिचारा दुःखदाः खलाः। - त्याज्याः स्वानन्दतुष्टेन दीपेनेव कुकज्जलम्।। १७४।। तीत्यादि : - यथा दीपकः स्वप्रकाशरूपेऽवतिष्ठमानः अन्तर्दोषान् कज्जलाकारेण सदा वमति तथैव स्वात्मानन्दरसिकेन ब्रह्मचर्यैकदेशव्रतिनः स्वस्त्रियामपि तीव्राभिलाषो न कर्त्तव्यः । कामस्य प्रवृद्धपरिणामः सदानर्थकारक एव भवति । स एव महान् दोषः व्रतभङ्गस्य हेतुर्भवितुमर्हति । यदि व्रतिनोऽन्तरङ्गे सदैव कामसन्तापः स्यात् तर्हि न स्यात्तस्य स्वात्मोपलब्धिः । तदभावे तु न स्यात्तद्व्रतमिति। तीव्राभिलाषेणैव परविवाहकरणं-इत्वरिकागमनं - अनङ्गक्रीडादयो दोषाः सञ्जायन्ते । व्रतातिचाराः खलु दुर्जना इव तीव्रदुःखदायिनो भवन्ति । व्रतानां नाशकर्त्तारस्तेऽनेकानि पापान्युत्पादयन्ति । तस्मात् स्वदारसन्तोषव्रतिना स्वस्त्रियामपि केवलं सन्तानोत्पत्त्यर्थमेव न तु भोगाभिलाषेण गमनं कर्त्तव्यम् । योग्यसन्ताने कुलवृद्धिकारके सति भोगत्याग एव श्रेयान् । अन्यथा अन्तर्वर्तिकज्जलमपरित्याज्य यथा दीपकः स्वप्रकाशं नाशयति स्वयमपि कलंकरूपो भवति तथैव स्वान्तर्दोषातिचारैः ब्रह्मव्रतैकदेशिनोऽपि स्वानन्ददोषनाशः स्यात् । जगति चापवादः स्यात् । अतः दीपकेन कज्जलमिव सदातिचाराणां परिहारः कार्य्यः । १७४ | स्वदार सन्तोषव्रती यदि काम की तीव्र अभिलाषा रखे और सदा चित्त को मलीन रखे तो वह व्रती होकर भी दोषी है। उसका यह भी कर्तव्य है कि जिस प्रकार दीपक अपने सुन्दराकार प्रकाश के द्वारा सदा दैदीप्यमान रहता है और अपने अन्दर विद्यमान कृष्णवर्ण कज्जल को सदा वमन करता है, त्याग करता है, उसी तरह अपने आत्मानन्द स्वरूप से प्रकाशमान व्रती को भी अपने अन्तर्दोषों का सदा निरीक्षण करते हुए उनका वमन करना चाहिए तथा नवीन दोष उत्पन्न न हो इसका प्रयत्न करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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