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________________ XVIII आदि अनेक रियासतों में तत्कालीन राजाओं ने आचार्यश्री के जन्मदिन कार्तिक शुक्ल २ को राज्यभर में अहिंसादिवस घोषित कर अपनी आचार्यश्री के तथा दिगम्बर जैनधर्म के प्रति श्रद्धा व भक्ति प्रकट की थी। आचार्यश्री ने करीब ३० ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे हैं। प्रस्तुत ग्रंथ उनमें से एक है। वाँसवाड़ा से जब मैं दुःखपूर्वक विदा होने लगा, मैंने आचार्यश्री से पुण्याशीर्वाद प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की। आचार्यश्री ने श्रावकधर्मप्रदीप ग्रंथ की मूल प्रति मुझे लाकर दी और यह आदेश दिया कि इसकी संस्कृत भाषा में और हिन्दी भाषा में टीका करो। यह श्रुतसेवा ही तुम्हारा कल्याण करेगी। मैंने विचार किया तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि श्रावकाचार के लिये ही मुझे पिता से प्रेरणा प्राप्त हुई थी और वही आदेश आचार्यश्री का है। इस कार्य से मेरे दोनों उद्देश्य पूरे होंगे तथा ढूँढारी भाषा की कठिनता भी हल होगी। मैंने दोनों कार्यों की पूर्ति इस ग्रंथ की टीका में ही मानकर इसे लिखने का प्रयास किया। ग्रंथ में कुछ विषय और समाविष्ट होने की आवश्यकता का अनुभव हो रहा है। जैसे षोडशसंस्कार व उसकी विधि, यज्ञोपवीत, विवाह संस्कार, गृहस्थों का उत्तराधिकार (दायभाग) और समाधिमरण इत्यादि, तथापि मूल ग्रंथ में इन विषयों पर कोई विशेष रचना न होने से नहीं लिखा गया। मूल श्लोक के अर्थ के अतिरिक्त भावार्थ में जो विशेषताएँ लिखी गई है 'प्रतिमादर्पण' में भी उनका उपयोग किया गया है। अनेक विशिष्ट विवेचनों के मूल स्रोत श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी हैं। प्रश्नोत्तर द्वारा जो समाधान उनसे प्राप्त किए हैं उनका भी समावेशन यत्र तत्र किया गया है। ग्रंथान्तरों में विहित अनेक चर्चाए भी ग्रंथ में की गई हैं। ___ मुझे लिखने का अभ्यास नहीं है, ज्ञान भी अपरिपुष्ट है। इन दोनों कारणों से लिखने का प्रारंभ करके भी पूर्ण होने की बात कठिनाई में थी। श्रीमान सिद्धान्तवेत्ता सुलेखक भाई पंडित फूलचन्द्रजी शास्त्री काशी मेरे परम मित्र हैं। हम उनके बहुत आभारी हैं कि उनकी प्रेरणा से ही मैंने येन केन प्रकारेण इसे पूरा किया है। एक बार लिखकर उसे लौटकर देखने का मुझे समय ही नहीं मिला। इस कारण टीका में अनेक स्खलन मेरे ज्ञात-भाव में भी रह गए हैं और अज्ञात भाव में भी होंगे। बहुतों का संशोधन उक्त पण्डितजी के साहाय्य से भाई पं०अमृतलालजी शास्त्री साहित्याचार्य काशी ने किया है। इसके लिए हम उनके भी आभारी हैं। श्रीमान् भाई कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने पुस्तक की भूमिका लिखने की कृपा की है। ग्रंथ में जो सौन्दर्य है वह तो मूल ग्रंथकर्ता आचार्य महाराज की कृति है और टीका में यदि कुछ गुण है तो वह हमारे उक्त मित्रों की कृपा है जो सहज स्नेहवश है। जो त्रुटियां है वे मेरे प्रमाद व अज्ञानजन्य हैं। उन्हें पूर्वाचार्य प्रणीत आगम से मिलाकर शुद्ध कर लेने की प्रार्थना विद्वानों से करता हुआ मैं अपने इस वक्तव्य को समाप्त करता हूँ। जगन्मोहनलाल जैन शास्त्री, कटनी (म०प्र०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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